पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२०५

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वाणी महत्त्वपूर्ण स्थान देती है, जो निजी सौदर्य के कारण सत्य-पद पर प्रतिष्ठित होती हैं। उसमे विश्वमगल की भावना ओत-प्रोत रहती है । सास्कृतिक केन्द्रो मे जिम विकाम का आभास दिखलाई पडता है, वह महत्त्व और लघुत्त्व दोनो सीमातो के बीच की वस्तु है । साहित्य की आत्मानुभूति यदि उस स्वात्म-अभिव्यक्ति, अमेद और साधारणीकरण का सकेत कर सके, तो वास्तविकता का स्वरूप प्रकट हो सकता है। हिंदी में इस प्रवृत्ति का मुख्य वाहन गद्य-साहित्य ही बना। कविता के क्षेत्र मे पौराणिक युग की क्सिी घटना अथवा देश-विदेश की सुदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना' के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिंदी मे उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया। रीतिकालीन प्रचलित परम्पग से जिसमे बाह्य वर्णन की प्रधानता थी इस ढग की कविताओ मे भिन्न प्रकार के भरवो की नये ग से अभिव्यक्ति हुई। ये नवीन भाव आतरिक स्पर्श से पुलकित थे। जाभ्यन्तर सूदम भावो सी प्रेरणा बाह्य स्थूल आकार मे भी कुछ विचित्रता उत्पन्न करती है । सूक्ष्म आभ्यन्तर भावो के व्यवहार मे प्रचलित पदयोजना अस+ । रहा। उनके लिए नवीन शैनी, नया वाक्य विन्यास आवश्यक था। हिंदी मे नवीन शब्दो की भगिमा स्पृहणीय आभ्यन्तर वर्णन के लिए प्रयुक्त होने लगी। शन्द विन्यास में ऐमा पानी चढा ति उगम एक तडप उत्पन्न करके सूक्ष्म अभिव्यक्ति का प्रयाम क्यिा गया। भवभूति के दाब्दो के अनुमार व्यतिपजति पदार्थानान्तर कोपि हा । न खलु बहिरुपाधीन् प्रीय मश्रयन्ते । बाह्य उपाधि से हटवर आगरहेतु की मोर कवि-कर्म प्रेरित हुआ। इस नये प्रकार की अभिव्यक्ति के लिए जिन शब्दा की योजना हुई, हिंदी भे पहले वे कम ममझे जाते थे, रितु शब्दा मे भिन्न प्रयोग मे एक स्वतन्त्र अर्थ उत्पन्न करने की शक्ति है। समीप के शब्द भी उम शब्द-विशेष का नवीन अर्थ द्योतन करने मे १ बोध की बहिरग-प्रत्यन्तभूमि वेदना (Awareness) अपनी स्वभाव-निरपेक्षता मे शून्यपदा है - आपाशवाची 'ख' मात्र है। 'सु' और 'दु' के उपसर्ग-योग उसके अनुकूल-वेस्नीयत्व (सु+ख) एव प्रतिकूल वेदनीयत्व (दु+ख) के द्योतन करते है। किंतु व्यवहारत जो समाज की दशा और प्रतिक्रिया के योगफल की व्यजना हे इन्दो के वर्तमान अर्थबोध प्राचीनो मे सर्वथा भिन्न है। मुतराम् सामाजिक दुखातिशयता वश व्यवहार मे आज पना से दु ख का ही तात्पर्य रूढ हो उठा है। वस्तुत वेदना के उभय बाहु सुखावेदना और दुखावेदना है। -सम्पादक यथार्थवाद और छायावाद १०५