पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२०३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

क्षुद्रता तथा मानवता मे विश्वास होना, सकीर्ण सस्कारो के प्रति द्वेष होना स्वाभाविक पा। इस रुचि के प्रत्यावर्तन को श्री हरिश्चन्द्र की युगवाणी में प्रकट होने का अवसर मिला। इसका सूत्रपात उसी दिन हुआ जब गवर्नमेट से प्रेरित राजा शिवप्रसाद ने सरकारी ढग की भाषा का समर्थन किया और भारतेदुजी को उनका विरोध करना पड़ा। उन्ही दिनो हिदी और बंगला के महाकवियो मे परिचय भी हुआ। श्री हरिश्चन्द्र और हेमचन्द्र ने हिंदी और बंगला मे आदान-प्रदान किया। हेमचन्द्र ने बहुत-सी हिंदी की प्राचीन कविताओ का अनुवाद किया और हरिश्चन्द्र ने "विद्या-सुदर' आदि का अनुवाद किया। जाति मे जो धार्मिक और साप्रदायिक परिवर्तनो के स्तर आवरण स्वरूप बन जाते है, उन्हे हटाकर अपनी प्राचीन वास्तविकता को खोजने की चेष्टा भी साहित्य मे तथ्यवाद की सहायता करती है। फलत आरम्भिक माहसपूर्ण और विचित्रता से भरी आख्यायिकाओ के स्थान पर-जिनकी घटनाएं राजकुमारो से ही सम्बद्ध होती थी- मनुष्य के वास्तविक जीवन का माधारण चित्रण आरम्भ होता है। भारत के लिए उस समय दोनो ही वास्तविक ये- यहाँ के दरिद्र जन-साधारण और महा- शक्तिशाली नरपति । किंतु जन-साधारण और उनकी लघुता के वास्तविक होने का एक रहस्य है। भारतीय नग्शो की उपस्थिति भारत के साम्राज्य को बचा नही सकी। फ्लत उनकी वास्तविक मत्ता मे अविश्वास होना मकारण था। धार्मिक प्रवचनो ने पतन मे और विवेकदमपूर्ण जाडम्बरो ने अपराधो म वोई रसावट नही डाली। तब राजसत्ता का कृत्रिम और वार्मिक महत्त्व व्यर्थ हो गया और साधारण मनुष्य जिसे पहले लोग अकिंचन समझते थे वही क्षुद्रता म महान दिख नाई पडने लगा । उस व्यापक दु ख सवलिन मानवता को स्पर्श व ग्नवाला साहित्य यथार्थवादी बन जाता है। इस यथार्थवादिता में भाव, पतन और वेदना के अ० प्रचुरता से होते है। आरम्भ मे जिस आधार पर साहित्यिक न्याय की स्थापना होती है-जिसमे राम की तरह आचरण करने के लिए कहा जाता है, रावण की तरह नही- उसमे रावण की पराज्य निश्चित है। साहित्य मे ऐसे प्रतिद्वद्वी पात्र का पतन आदर्शवाद के स्तभ मे किया जाता है, परन्तु यथार्थवादियो के यहाँ कदाचित यह भी माना जाता है कि मनुष्य मे दुर्बलताएं होती ही है और, वास्तविक चित्रो मे पतन का भी उल्लेख आवश्यक है । और फिर पतन के मुख्य कारण क्षुद्रता और निंदनीयता भी- जो सामाजिक रूढियो के द्वारा निर्धारित रहती है नी सत्ता बनाकर दूसरे रूप मे अवतरित होती है । वास्तव मे कर्म, जिनके सम्बन्ध मे देश, काल और पात्र के अनुसार यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण रूप से न तो भले है और न बुरे है, . यथार्थवाद और छायावाद : १०३