परन्तु उत्तरीय भारत में बाह्यप्रभाव की अधिकता के कारण इनमे परिवर्तन हो गया है और अभिनय की वह बात नही रही। हां, एक बात अवश्य इन लोगों ने की है और वह है चलते-फिरते रगमंचों की या विमानों की रक्षा। वर्तमान रंगमंच अन्य प्रभावों से अछूता न रह सका, क्योंकि विप्लव और आतंक के कारण प्राचीन विशेषताएं नष्ट हो चुकी थी। मुगल-दरबारों मे जो थोडी सी संगीत-पद्धति तानसेन की परंपरा से बच रही थी, उसमे भी बाह्य प्रभाव का मिश्रण होने लगा था। अभिनयो मे केवल भाण ही मुगल-दरबार मे स्वीकृत हुआ था; वह भी केवल मनोरंजन के लिए। पारसी व्यवसायियो ने पहले-पहल नये रगमंच की आयोजना की। भाषा मिश्रित थी- इंद्र-मभा, चित्रा-बकावली, चद्रावली, हरिश्चद्र आदि के अभिनय होते थे, अनुकरण था रंगमंच मे 'शेत्रसपीरियन स्टेज' का, क्योंकि वहां भी विक्टोरियन' युग की प्रेरणा ने रगमच में विशेष परिवर्तन कर लिया था। १९वीं शताब्दी के मध्य मे कोन को महायता मे अग्रेजी रगमच मे पुरावृत्ती खोजो के आधार पर शेक्सपियर के नाटको के अभिनय की नई योजना हुई, और तभी हेनरी इविंग मदश चतुर नट भी आए। रितु माथ ही सूक्ष्म तथा गंभीर प्रभाव डालने वाली इमन की प्रेरणा भी पश्चिम में स्थान बना रही थी, जो नाटकीय ययार्थवाद का मूल है । भारतीय रगमच पर इस पिछली धाग का प्रभार पहले-पहल बंगाल पर हुआ। कितु इन दोनों प्रभावों के बीच दक्षिण में भारतीय रंगमंच निजी स्वरूप में अपना अस्तित्व रख मका। कथकलि-नृत्य मदिरों की विशात मग्माओ मे मर नही गया था। भावाभिनय अभी होते रहते थे। कदाचित् सस्कृत-नाटको का अभिनय भी चल रहा था, बहुत दवे-दवे । आध्र ने आवार्यों के द्वारा जिस धार्मिक संस्कृति का पुनरावर्तन किया था, उसके परिणाम गे सस्कृत-माहित्य का भी पुनरुद्धार और तत्सबधी साहित्य और कला की भी पुनरावृत्ति हुई थी। सस्कृत के नाटकों का अभिनय भी उसी का फल था। दक्षिण मे वे सब कलाएं मजीव थी; उनका उपयोग भी हो रहा था। हां, गली और जावा इन्यादि के मदिरो मे इमी प्रकार के अभिनय अधिक मजीवता से सुरक्षित थे। तीस बरस पहले जब काशी में पारसी रंगमच की प्रबलता थी, तब भी मैंने किमी दक्षिणी नाटक-म दली द्वारा संस्कृत मृच्छकटिक का अभिनय देखा था। उसकी भारतीय विशेषता अभी मुझे भूली नहीं है । कदाचित् उमका नाम 'ललित-कलादर्ण-भडली' था।' १. यह लेख १९३६ के अंत मे लिखा गया और जुलाई १९३७ मे हिदुस्तानी एकेडेमी की पत्रिका "हिंदुस्तानी' के भाग ७ अक ३ मे प्रकाशित हुआ। मृच्छकटिक का वह अभिनय लेखक ने १९०६ मे देखा होगा। (सं०) ९२: प्रसाद वाङ्मय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।