पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९०

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इन वस्तुओं के उपयोग मे इस बात का भी विचार किया जाता था कि नाटक के अभिनय मे सुविधा हो। नाटक के अभिनय में दो विधान माननीय थे, और उन्हें लोकधर्मी और नाटयधर्मी कहते थे। भरत के समय मे ही रंगमंचों मे स्वाभाविकता पर ध्यान दिया जाने लगा था। रंगमंच पर ऐसे अभिनय को लोकधर्मी कहते थे। इस लोकधर्मी अभिनय मे रंगमंच पर कृत्रिम उपकरणों का उपयोग बहुत कम होता था 'स्वाभावो लोकधर्मी तु नाटयधर्मी विकारतः' (नाटय शास्त्र १३-१९३) स्वाभाविकता का अधिक ध्यान केवल उपकरणों में ही नही; कितु आंगिक अभिनय मे भी अभीष्ट था। उसमे बहुत अंग-लीला वर्जित थी। अनिसत्व क्रियाएँ, असाधारण कर्म, अतिभाषित लोकप्रमिद्ध द्रव्यो का उपयोग अर्थात् शैल, यान और विमान आदि का प्रदर्शन और ललित अगदार जिसमे प्रस्तुत होते थे-रंगमच के ऐसे नाटकों को नाटयधर्मी कहते थे। म्गत, आराण-भाषित इत्यादि को नब भी नम्बाभारि माना जाता था, और उनका प्रयोग नाटयधर्मी अभिनय भे ही रंगमंच पर किया जाता था। सन्नोक्त च यद् वाक्यम न शृण्वन्ति परस्परम् अनुतं श्रृयते वाक्यम नाटाधर्मी तु भा स्मृता। प्राचीन रगग च मे स्वगत की योजना, जिस कि समीप का उपस्थित व्यक्ति सुनी बान को जनमुना कर जाता है, नादचधर्गी अभिनय के ही अनुक्त न होना था, और भाण' मे आकाश-भापित का प्रयोग भी नाट्यधर्मी के ही अनुकल है। व्य जना- प्रधान अभिनय का भी शिकाम प्राचीन गमन पर हो गया था। भावपूर्ण अभिनय मे पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी। नाट्य-गास्त्र के छब्बीमवे अध्याय मे इसका विस्तृत वर्णन है । पक्षि का रेत्रक से, मिह आदि पशुओ का गति प्रचार मे, भूत पिशाच और राक्षमों का अंगहार में अभिनय किया जाना था। इस भावाभिनय का पूर्ण स्वरूप अभी भी दक्षिण के तथलि नृत्य में वर्तमान है । रंगमंच मे नटो के गति-प्रचार (मृवमेट), यातु-निवेदन (डिलीवरी), संभाषण (स्पीच) इत्यादि पर भी अधिा सूक्ष्मना में ध्यान दिया जाना था। और इन पर नाट्यशास्त्र में अलग-अलग अध्यायही लिम्बे गये है। रगमत्र पर जिम कथा का अवतरण किया जाता था, उमका विभाग भी समय के अनुमार और अभिनय की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए किया जाता था। ज्ञात्वा दिवसाम्तान्क्षणयाममुहूर्तलक्षणोपेतान् । विभजेत् सर्वमशेषम् पृथक् पृथक् काव्यमंकेषु।। प्रायः एक दिन का कार्य एक अंक मे पूरा हो जाना चाहिए और यदि न हो सके, तो प्रवेशक और अंकावतार के द्वारा उमकी पूर्ति होनी चाहिए। एक वर्ष से अधिक का समय तो एक अंक मे आना नही चाहिए। प्रवेशक, अंकावतार और ९०: प्रसाद वाङ्मय