पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१८२

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- - 'सोम-विक्रयी! सोम राजा बेचोगे?' "बिकेगा।' 'तो लिया जायगा।' 'ले लो।' 'गो की एक कला से उसे लूंगा।' 'सोम राजा इससे अधिक मूल्य के योग्य हैं।' 'गो भी कम महिमावाली नहीं। इसमें मट्ठा, दूध, घी मब है।' 'अच्छा, आठवां भाग ले लो।' 'नहीं, सोम राजा अधिक मूल्यवान् है।' 'तो चौथाई लो।' 'नहीं और मूल्य चाहिए।' 'अच्छा आधी ले लो।' 'अधिक मूल्य चाहिए।' 'अच्छा, पूरी गौ ले लो, भाई ।' 'तब सोम राजा बिक गये; परन्तु और क्या दोगे ? मोम का मूल्य समझकर और कुछ दो।' 'स्वर्ण लो, कपड़े लो, गाय के जोड़े, बछड़े वाली गौ, जो चाहो सब दिया जायगा।' (यह मानो मूल्य से अधिक चाहनेवाले को भुलावा देने के लिए अध्वयं कहता था) फिर जब बेचने के लिए वह प्रस्तुत हो जाता, तब मोम-विक्रेता को सोन। दिखलाकर ललचाते हुए निराश किया जाता। यह नय कुछ काल तक चलता। 'सम्मेत इतिः सोमविक्रयिण हिरण्येनाभिकम्पयति' मूत्र की टीका में कहा गया है 'हिरण्यं दत्त्वादत्त्वा स्वीकुर्वस्तं निराशं कुर्यात्' । उम जंगली नो ठकाकर फिर वह सोना अध्वर्य यजमान के पास रख देता: और उसे एक बकरी दी जाती। संभवतः सोना भी उसे दिया जाता। तब सोम-विक्रेता यजमान के कपड़े पर सोम डाल देता। सोम मिल जाने पर यजमान तो कुछ जप करने बैठ जाता। जैसे अब उससे सोम के झगड़े से कोई सम्बन्ध नहीं। सहमा परिवर्तन होता-हिरण्यं महसाऽच्छित्त्य 'पृषता वरत्राकांडेनाहन्तिवा' (का-यायन श्रोत मृत्र ७-८-२५) । सोम-विक्रेता से सहसा सोना छीनकर उसकी पीठ पर कोड़े लगाकर उसे भगा दिया जाता। इसके बाद सोम राजा गाड़ी पर घुमाये जाते, फिर सोमरस के रसिक आनन्द और उल्लारा के प्रतीक इन्द्र का आवाहन किया जाता। भरन ने लिखा है कि समय: ममुपस्थितः अयं ध्वजमहः श्रीमान्गहेन्द्रस्य प्रवर्तते । महानय प्रयोगस्य ८२: प्रसाद वाङ्मय