पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूर्ण अहंपद में विश्रांत हो जाना -आगमों की ही दार्शनिक सीमा है। साहित्य- दर्पणकार की रस-व्याख्या में उन्हीं लोगों की शब्दावली भी है-स्वत्वोद्रेकारखंडस्व प्रकाशानन्दचिन्मयः, इत्यादि । यह रस बुद्धिवादियों के पास गया, तो धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया कि रस के मूल में चैतन्य की भिन्नता को अभेदमय करने का तत्व है। फिर तो चमत्कारापरपर्याय अनुभवसाक्षिक रस को पंडितराज जगन्नाथ ने आगमवादियों की ही तरह 'रसो व सः, रसं हव लब्ध्वाऽनन्दीभवति' के प्रकाश में आनन्द ब्रह्म ही मान लिया । संभवतः इसीलिए दु.खांत प्रबंधों का निषेध भी किया गया। क्योंकि विरह तो उनके लिए प्रत्यभिज्ञान का साधन, मिलन का द्वार था। चिर-विरह की कल्पना आनन्द में नहीं की जा सकती। शैवागमों के अनुयायी नाटयों में इसी कल्पित विरह या आवरण का हटना ही प्राय दिखलाया जाता रहा। अभिज्ञान शाकुन्तल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । बुद्धिवाद के अनन्य समर्थक व्यास की कृति महाभारत शांत रस के अनुकूल होने पर भी दुःखांत है । रामायण भी दु खात ही है । शैवागम के आनन्द-संप्रदाय के अनुयायी रसवादी, रस की दोनों सीमाओं शृंगार और शांत को स्पर्श करते थे। भरत ने कहा- भावा विकारा रत्याद्य शान्तस्तु प्रकृतिमतः विकारा' प्रकृतेर्जातः पुनस्तत्रैव लीयते । यह शात रस निस्तरंग महोदधिकल्प समरसता ही है। किंतु बुद्धि द्वारा सुख की खोज करने वाले संप्रदाय ने रमों में शृंगार को महत्त्व दिया और आगे चल कर शैवागमों के प्रकाश मे साहित्य की रस व्याख्या से संतुष्ट न होकर, उन्होंने शृंगार का नाम मधुर रख लिया। कहना न होगा कि उज्ज्वल नीलमणि का संप्रदाय बहुत कुछ विरहोन्मुख ही रहा, और भक्ति-प्रधान भी। उन्होंने कहा है- मुख्यरसेषु पुरा यः संक्षेपेनोदितोरहस्यत्वात्, पृथगेव भक्तिरसराट् सविस्तरेणोच्यते मधुरः । कदाचित् प्राचीन रसवादी रस की पूर्णता भक्ति मे इसीलिए नही मानते थे कि उसमें द्वैत का भाव रहता था। उसमें रमाभास की ही कल्पना होती थी। आगमों में तो भक्ति भी अद्वतमूला थी। उनके यहाँ द्वैत-प्रथा 'तद्ज्ञानतुच्छत्वात् बंधमुच्यते' के अनुसार द्वैत बंधन था। इस मधुर-संप्रदाय मे जिस भक्ति का परिपाक रस के रूप में हुआ, उसमें परकीया-प्रेम का महत्त्व इसीलिए बढ़ा कि वे लोग दार्शनिक दृष्टि से तत्व को 'स्व' से 'पर' मानते थे। उज्ज्वल नीलमणिकार का कहना है- रागेणोल्लंघयन् धर्मम् परकीया बलाथिना तदीय प्रेम वसति बुधरुपपतिस्मृतः अत्रैव परमोत्कर्षः शृंगारस्य प्रतिष्ठितः । 1 ७४: प्रसाद वाङ्मय