पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१६९

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रस जब काव्यमय श्रुतियो का काल समाप्त हो गया और धर्म ने अपना स्वरूप अर्थात् शास्त्र और स्मृति बनाने का उपक्रम किया-जो केवल तर्क पर प्रतिष्ठित था -तब मनु को भी कहना पड़ा-यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेदनेतरः । परंतु आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति, जो मानव-ज्ञान की अ धारा थी, प्रवाहित रही। काव्य की धारा लोकपक्ष से मिलकर अपनी आनंद साधना में लगी रही। यद्यपि शास्त्रों की परंपरा ने आध्यात्मिक विचार का महत्त्व उससे छीन लेने का प्रयत्न किया, फिर भी अपने निपेधों की भयानकता के कारण, हृदय के समीप न होकर वह अपने शासन का रूप ही प्रकट कर सकी। अनुभूतियां काव्य-परंपरा में अभिव्यक्त होता नही । 'जाग्राह पाट्यम् ऋग्वेदात्' (भरत) से यह स्पष्ट होता है कि सर्वसाधारण के लिए वेदों के आधार पर काव्यों का पंचम वेद की तरह प्रचार हुआ। भारतीय वाङ्मय में नाटकों को ही सब से पहले काव्य कहा गया। काव्यं तावन्मुख्यतो दशरूपात्मकमेव (अभिनवगुप्त) शैवागमों के 'क्रीड़त्वेनाखिलम् जगत्' वाले सिद्धान्त का नाट्य-शास्त्र में व्यावहारिक प्रयोग है। इन्ही नाट्योपयोगी काव्यों में आत्मा की अनुभूति रस के रूप में प्रतिष्ठित हुई। अभिनवगुप्त ने कहा है 'आस्वादनात्माऽनुभवो रसः काव्यार्थमुच्यने' । नाटकों मे भरत के मत मे चार ही मूल रस है-शृंगार, रोद्र, वीर और बीभत्स । इनसे अन्य चार रसों की उत्पत्ति मानी गयी। शृंगार से हास्य, वीर रो अद्भुत, रोद्र से करुण और बीभत्स से भयान । इन चित्तवृत्तियों में आत्मानुभूति का विलास आरंभिक विवेचकों को रमणीय और उत्कर्षमय मालूम हुआ। नाट्यों में वाणी के छंद, गद्य और संगीत इन तीनों प्रकारों का समावेश था। इस तरह आभ्यंतर और बाह्य दोनों में नाट्य-संघटना पूर्ण हुई। रसात्मक अनुभूति आनंदमात्रा से संपन्न थी और तब नाटकों में रस का आवश्यक प्रयोग माना गया; किंतु रस संबंधी भरत मुनि के सूत्र ने भावी आलोचकों के लिए अद्भुत सामग्री उपस्थित की। "विभावानुभावव्यभिचारि- संयोगाद्रसनिष्पत्तिः' की विभिन्न व्याख्याएं होने लगी। स्वयं भरत ने लिखा है 'तथा विभावानुभावव्यभिचारिपरिवृतः स्थायीभावो रसनाम लभते' (नाट्यशास्त्र, अ०७) अर्थात् प्रमुखस्थायी मनोवृत्तियाँ विभाव, अनुभाव, व्यभिचारियों के संयोग से रसत्व रस:६९