(कठ०) वाले योग का अपने ढंग के अनात्मवाद के साधन के लिए उपयोग करने लगे। श्रुतियों का और निगम का काल समाप्त होने पर ऋषियों के उत्तराधिकारियों ने आगमों को अवतारणा की और ये आत्मवादी आनंदमय कोष की खोज में लगे ही रहे। आनंद का स्वभाव ही उल्लास है, इसलिए साधना-प्रणाली में उसकी मात्रा उपेक्षित न रह सकी। कल्पना और साधना के दोनों पक्ष अपनी-अपनी उन्नति करने लगे। कल्पना विचार करती थी, माधना उसे व्यवहार्य बनाती थी। आगम के अनुयायियों ने निगम के आनंदवाद का अनुसरण किया, विचारों में भी और क्रियाओं में भी। निगम ने कहा था- आनंदाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायंते, आनदेन जातानि जीवंति । आनंद प्रयंत्यभिसंविशंति । आगमवादियों ने दोहराया- आनंदोच्छलिता शक्तिः मृजत्यात्मानमात्मना । आगम के टीकाकारों ने भी इस अद्वैत आनंद को अच्छी तरह पल्लवित किया। विगलितभेद-संस्कारमानंदरसप्रवाहमयमेव पश्यति (क्षेमराज) हां, इन मिद्धों ने आनंदरस की साधना मे और विचारो में प्रकारांतर भी उपस्थित किया-अद्वैत को समझने के लिए- आत्मैवेदमग्र आसीत्""स वै नैव रेमे । तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमच्छत् स हैतावानास यथा स्त्रीपुमा सो सम्परिष्वक्तो स इममेवात्मानं द्विधापातयत् । इत्यादि वृहदारण्यक ने श्रुति का अनुकरण करके समता के आधार पर भक्ति की और मित्र- प्रणय की-सी मधुर कल्पना भी की। क्षेमराज ने एक प्राचीन उद्धरण दिया- जाते समरसानन्दे द्रुतमप्यमृतोपमम् । मित्रयोरिव दापत्योर्जीवात्मपरमात्मनोः॥ यह भक्ति का आरंभिक स्वरूप आगमों में अद्वैत की भूमिका पर ही सुगठित हुआ। उनकी कल्पना निराली थी- समाधिवजेणाप्यन्यैरभेद्यो भेदभूधर.। परामृष्टश्च नष्टश्च त्वद्भत्तिबलशालिभिः ।। यह भक्ति भेदभाव, द्वैत, जीवात्मा और परमात्मा की भिन्नता को नष्ट करने वाली थी। ऐसी ही भक्ति के लिए माहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त के गुरु ने कहा है- भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां 'किमन्यदुपयाचितम् । अद्वैतवाद के इस नवीन विकास में प्रेमाभक्ति की योजना तैत्तिरीय आदि श्रुतियों के ही आधार पर हुई थी। फिर तो सौंदर्य-भावना भी स्पष्ट हो चली- श्रुत्वापि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुंदरम् । (अष्टावक्रगीता ४॥३) ६०: प्रसाद वाङ्मय
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