पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१५१

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चेष्टा है। इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है -य एको वर्णो बहुधा शक्तियोगात् वर्णानकानिहितार्थों दधाति विचति चान्ते विश्वमादौ स देवः स नो बुराधा शुभया संयुनक्तु । भावों को व्यक्त करने का मौलिक साधन वाणी है। इसलिए वही प्रकृत है। आर्य-साहित्य में उन वर्गों के संगठन के तीन रूप माने गये हैं- पद्यात्मक, यजुगद्यात्मक और साम=एंगीतात्मक । 'वैदिकाश्च विविधाः प्रगीता अप्रगीताश्च । तत्र प्रगीताः सामानि, अप्रगीताश्च द्विविधाः छन्दोबद्धास्तद्विलक्षणाश्च । तत्र प्रथमा ऋचः द्वितीया यजूंषि' (सर्वदर्शनसंग्रह)। यही आर्य-वाणी की आरंभिक उच्चारण शैली है, जो दूसरों के आस्वाद के लिए श्रव्य कही जाती है । काव्य को इन आरंभिक तीन भागों में विभक्त कर लेने पर उसकी आध्यात्मिक या मौलिक सत्ता का हम स्पष्ट आभास पा जाते हैं, और यही वाणी-जैसा कि हम ऊपर बह आये हैं-आत्मानुभूति की मौलिक अभिव्यक्ति है। वाणी के द्वारा अनुभूतियों को व्यक्त करने के बाद एक अन्य प्रकार का भी प्रयत्न आरंभ होता है। दूर रहनेवाले, चाहे यह देश-काल के कारण से ही हो, केवल व्यष्टि का आश्रय लेनेवाली उच्चारणात्मक वाणी का आनंद नहीं ले सकते। इसलिए वह व्यक्ति-द्वारा प्रकट हुई आत्मानुभूति सामूहिक या समष्टि-भाव से विस्तार करने का प्रयत्न करती है। और तब -चित्र, लिपि, लक्षण इत्यादि संबंधी अपनी बाह्य सत्ता को बनाती है। ऊपर कहा जा चुका है कि कला को भारतीय रष्टि में उपविद्या माना गया है । आगमों के अनुशीलन से, कला को अन्य रूप से भी बताया जा सकता है। शैवागमों में छत्तीस तत्त्व माने गये है, उनमें कला भी एक तत्त्व है। ईश्वर की कत्र्तृत्व, सर्वज्ञत्व, पूर्णत्व, नित्यत्व और व्यापकत्व शक्ति के स्वरूप-कला, विद्या, राग, नियति और काल माने जाते है । शक्ति-संकोच के कारण जो इंद्रिय-द्वार से शक्ति का प्रसार एवं आकुंचन होता है, इन व्यापक शक्तियों का वही संकुचित रूप, बोध के लिए है। 'कला संकुचित कर्तृत्व शक्ति कही जाती है। भोजराज ने भी अपने तत्वप्रकाश में कहा है -व्यञ्जयति कर्तृशक्ति कलेति तेनेह कथिता सा। शिवसूत्र- विमर्शिनी में क्षेमराज ने कला के संबंध में अपना विचार घों व्यक्त किया है- 'कलयति स्व स्वरूपावेशेन तत्तद् वस्तु परिच्छिनत्तीति कलाव्यापारः'। इस पर टिप्पणी है-कलयति, स्वरूपं आवेशयति, वस्तुनि वा तत्र-तत्र प्रमातरि कलनमेव कला-अर्थात्, नव-नव स्वरूप-प्रथोल्लेख-शालिनी संवित् वस्तुओं में या प्रमाता में स्व को, आत्मा को परिमित रूप में प्रकट करती है, इसी क्रम का नाम कला है। १. 'कर्तृत्वसकल बनकर आवे नश्वर छाया-सी ललित कला' इत्यादि-इड़ा सर्ग, कामायनी। काव्य और कला : ५१