पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१५

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इस दूसरे शतानीक की ही वास्तविक स्थिति ज्ञात होती है, जिसकी स्त्री किसी प्रकार गरुड़ पक्षी-द्वारा) हरी गयी। उस राजा शतानीक के विरागी हो जाने पर उदयगिरि की गुफा में उत्पन्न विजयी और वीर उदयन, अपने बाहुबल से, कौशाम्बी का अधिकारी हो गया। इसके बाद कौशाम्बी के सिंहासन पर क्रमशः अहीनर (नरवाहनदत्त), खण्डपाणि, नरमित्र और क्षेमक-ये चार राजा बैठे। इसके बाद कौशाम्बी के राजवंश या पाण्डव-वंश का अवसान होता है। अर्जुन की सातवीं पीढ़ी में उदयन का होना तो किसी प्रकार से ठीक नहीं माना जा सकता, क्योंकि अर्जुन के समकालीन जरासंध के पुत्र सहदेव से लेकर, शिशुनागवंश से पहले के जरासंध-वंश के २२ राजा मगध के सिंहासन पर बैठ चुके हैं । उनके बाद १२ शिशुनाग-वंश के बैठे जिनमें छठे और सातवें राजाओं के समकालीन उदयन १. इस स्त्री अर्थात् उदयन की माता-मृगावती के हरण का जैसा विवरण सोमदेव ने दिया है उससे 'भरन परिदीपित उदेनि वस्तु' के इस आरोप का पूरा खण्डन होता है कि यह क्षेत्रज पुत्र था। कदाचित् बौद्धों ने एक याज्ञिक सम्राटों की परम्परा के अन्तिम नक्षत्र उदयन के आभिजात्य को संदिग्ध बनाने का साहस किया हो तो आश्चर्य नही। प्रसेनजित् एवं बिम्बिसार का अनुकरण कर उदयन ने बौद्ध धर्म अङ्गीकार नही किया, यद्यपि, तथागत ने कौशाम्बी के अपने नवें चातुर्मास्य में उसको प्रभावित करने की चेष्टा अवश्य ही की होगी किन्तु, वह आयुपर्यन्त वैदिक मतावलम्बी बना रहा। सोमदेव का कथासरित्सागर उसे इन्द्रप्रस्थीय राज-परम्परा की एक औरम सन्तति बताता है। मृगावती ने कौशाम्बी में ही दोहदवती होने पर रक्त-स्नान की इच्छा की थी। राजा ने वापी को लाक्षारस से भरवा कर स्नान कराया। उस लाक्षालिप्ता मृगावती को मांस-खण्ड समझ कर गरुड़ पक्षी उठा ले गया किन्तु जीवित देख कर उसे उदय पर्वत पर छोड़ दिया जहाँ जमदग्नि के आश्रम में रक्षित रह कर उसने उदयन को जन्म दिया। 'ययाचेसाऽथ भर्तारं दर्शनात्तप्तलोचनम् दोहदंरुधिरापूर्णलीलावापी निमज्जनम्॥ 'सचेच्छापूरयन्ाज्ञा लाक्षादिरस निर्भराम् चकारर्मिको राजावापीरक्तवृतामिव' । 'तस्यांस्नातामकस्माच्च लाक्षालिप्तां निपत्यताम् गरुड़ान्वयजः पक्षी जहारा ।। मिपशंकया---जीवंतींवीक्ष्य तस्याज देवादुदय पर्वते ।' (कथामुखलम्बक) द्रष्टव्य : 'हिन्दुस्तानी' पत्रिका, भाग १७, अंक २-३, सन् १९४७ में प्रकाशित लेख 'उदयन' और नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष ५५ अंक ३, संवत् २००७ में प्रकाशित “वैदेही पुत्र अजातशत्रु और उसकी कुटनीति"-लेखक : रत्नशंकर प्रसाद । (संपादक) अजातशत्रु-कथा प्रसंग : १५