पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१४४

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कला से जो अर्थ पाश्चात्य विचारो मे लिया जाता है, वैसा भारतीय दृष्टिकोण मे नही। ज्ञान के वर्गीकरण मे पूर्व और पश्चिम का सास्कृतिक रुचि-भेद विलक्षण है । प्रचलित शिक्षा के कारण आज हमारी चिंतनधारा के विकास मे पाश्चात्य प्रभाव ओतप्रोत है, और इसलिए हम बाध्य हो रहे है अपने ज्ञान-सबधी प्रतीको को उसी दृष्टि से देखने के लिए। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के विवेचन मे हम केवल निरुपाय होकर ही प्रवृत्त नही होते, किंतु विचार-विनिमय के नये साधनो की उपस्थिति के कारण ससार की विचार-धारा से कोई भी अपने को अछूता नही रख सकता। इस सचेतनता के परिणाम मे हमे अपनी सुरुचि की ओर प्रत्यावर्तन करना चाहिए क्योकि हमारे मौलिक ज्ञान-प्रतीक दुर्बल नही है । हिंदी मे आलोचना क्ला के नाम मे आरभ होती है। और साधारणत हेगेल के मतानुसार मृत और अमूर्न विभागो के द्वारा क्लाओ मे लघुत्व और महत्व समझा जाता है। इम विभाजन मे सुगमता अवश्य है, किंतु इमका ऐतिहामिक और वैज्ञानिक विवेचन होने की सभावना जैसी पाश्चात्य माहित्य मे है, वैसी भारतीय साहित्य मे नही। उनके पास अरस्तू से लेकर वर्तमान काल तक की सौदर्यानुभूति संबधिनी विचार-धारा का क्रमविकाम और प्रतीको के साथ साथ उनका इतिहाम तो है ही, सबसे अच्छा माधन उनकी अविच्छिन्न सास्कृतिक एकता भी है। हमारी भाषा के साहित्य मे वैसा सामजस्य नही है। वीच-बीच मे इतने अभाव या अधकार-काल है कि उनमे कितनी ही विरुद्ध सस्कृतियाँ भारतीय रगस्थल पर अवतीर्ण और लुप्त होती दिखाई देती हैं, जिन्होने हमारी सौदर्यानुभूति के प्रतीको को अनेक प्रकार से विकृत करने का ही उद्योग किया है : यो तो पाश्चात्य वर्गीकरण मे भी मतभेद दिखलाई पड़ता है। प्राचीन काल मे ग्रीस का दार्शनिक प्लेटो कविता का सगीत के अतर्गत वर्णन करता है, किंतु वर्तमान विचार-धारा मूर्त और अमूर्त कलाओ का भेद करते हुए भी कविता को अमूर्त संगीत-कला से ऊँचा स्थान देती है। कला के इस तरह विभाग करने वालो का कहना है कि मानव-सौदर्य-बोध की सत्ता का निदर्शन तारतम्य के द्वारा दो भागो मे किया जा सकता है। एक स्थूल और बाह्य तथा भौतिक पदार्थों के आधार पर प्रषित होने के कारण निम्न कोटि की, मूर्त होती है। जिसका चाक्षुष प्रत्यक्ष हो सके, वह मूर्न है। गृह-निर्माण-विद्या, मूर्तिकला और चित्रकारी, ये कला के मूर्त विभाग है और क्रमशः अपनी कोटि मे ही सूक्ष्म होते-होते अपना श्रेणी-विभाग करती हैं। संगीत-कला और कविता अमूर्त कलाएँ है। सगीत-कला नादात्मक है और कविता उससे उच्च कोटि की अमूर्त कला है। काव्य-कला को अमूर्त मानने मे जो ४४: प्रसाद वाङ्मय