. में आजकल, अमुक वस्तु अभारतीय है अथवा भारतीय संस्कृति सुरुचि के विरुद्ध है, कह देने की परिपाटी.चल पड़ी है। विज्ञ समालोचक भी हिंदी की आलोचना करते- करते 'छायावाद' 'रहस्यवाद' आदि वादों की कल्पना करके उन्हें विजातीय, विदेशी तो प्रमाणित करते ही हैं, यहां तक कहते हुए लोग सुने जाते हैं कि वर्तमान हिंदी- कविता में अचेतनों में, जड़ों मे, चेतनता का आरोप करना हिदी-वालों ने अंगरेजी से लिया है; क्योंकि अधिकतर आलोचकों के गीत का टेक यही रहा है कि हिंदी में जो कुछ नवीन विकास हो रहा है, वह सब बाह्य वस्तु (Foreign element) है। कही अंगरेजी में उन्होंने देखा कि 'गाड इज लव'। फिर क्या ? कही भी हिंदी में ईश्वर के प्रेम-रूप का वर्णन देख कर उन्हें अंगरेजी के अनुवाद या अनुकरण की घोषणा करनी पडती है । उन्हे क्या मालूम कि प्रमिद्ध वेदात ग्रंथ पंचदशी में कहा है 'अयमात्मा परानंद: परप्रेमास्पद यतः'। वे भूल जाते है कि आनंदवर्द्धन ने हजारो वर्ष पहले लिखा है- भावानचंतनानपि चेतनवच्चेनानचेतनवत्, व्यवहारयति यथेष्टं सुकविः काव्ये स्वतंत्रतया । ऐसे ही कुछ सिद्धात पिछले काल के अलंकार और रीति-ग्रन्थो के अस्पष्ट अध्ययन के द्वारा और भी बन रहे है । कभी यह सुना जाता है कि भारतीय साहित्य में दुखांत और तथ्यवादी साहित्य अत्यंत तिरस्कृत है। शुद्ध आदर्शवाद का सुखांत प्रबंध ही भारतीय संस्कृति के अनुकूल है । तब मानो ये आलोचकगण भारतीय संस्कृति के साहित्य-संबंधी दो आलोकस्तंभों, महाभारत और रामायण की ओर से अपनी आँखें बंद कर लेते है। ये सब भावनाएँ साधारणतः हमारे विचारों की संकीर्णता और प्रधानतः अपनी स्वरूप-विस्मृति से उत्पन्न है । मांस्कृतिक सुरुचि का समय-समय पर हुए विशेष परिवर्तनों के साथ, विस्तृत और पूर्ण विवरण देना यहाँ मेरा उद्देश्य नही है। हमारे यहाँ इसका वर्गीकरण भिन्न रूप मे हुआ। काव्य-मीमासा से पता चलता है कि भारत के दो प्राचीन महानगरों में दो तरह की परीक्षाएं अलग-अलग थी। काव्यकार-परीक्षा उज्जयिनी मे और शास्त्रकार-परीक्षा पाटलिपुत्र में होती थी। इस तरह भारतीय ज्ञान दो प्रधान भागों मे विभक्त था। काव्य की गणना विद्या में थी और क्लाओं का वर्गीकरण उपविद्या मे था। कलाओं का कामसूत्र में जो विवरण मिलता है, उसमें संगीत और चित्र तथा अनेक प्रकार की ललित कलाओं के साथ-साथ काव्य-समस्या-पूरण भी एक कला है, स्तुि वह समस्यापूर्ति (श्लोकस्य ममस्यापूरणम् क्रीड़ार्थम् वादार्थम् च) कौतुक और वाद-विवाद के कौशल के लिए होती थी। साहित्य में वह एक स धारण श्रेणी का कौशल-मात्र समझी जाती थी। काव्य और कला : ४३
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