पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१३४

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मयूरों का उच्च कम्ब-शिखर पर बैठे हुए कलनाद, कोकिल गण का कलरव, झिल्ली-समूह के झन्कार के साथ पवन-वेग से गुञ्जित तथा कम्पित वृक्षावली शिर हिलाकर चित्त को अपनी ओर बुलाये लेती है ? तदुपरान्त सधन बुन्दियों की अविरल धारा; क्षितिज पर्यन्त हरियाली, रुकते हुए वर्षा-जल की श्वेत आभा; नेत्रों के सामने कैसा सुन्दर दृश्य उपस्थित करती है ! तुम्हारा स्वरूप मनुष्य की कल्पना में नहीं आ सकता। पावस निशा में तुम्हारा वह भयावह दृश्य हृदय को कम्पायमान करता है। गम्भीर तमावृत्त संसार, मेघाच्छन्न आकाश से सौदामिनी के चमकने के साथ घोर वज्रपात शब्द, वर्षा का गम्भीर-रव, झिल्लियों की झन्कार के साथ-साथ बारम्बार जुगुनू का चमकना हृदय को अधीर किए देता है । और यह क्या ? देवि ! यह कैसा अद्भुत दृश्य ! कहाँ वह श्यामघन में सौदा- मिनी-माला, कहाँ स्वच्छ नील-गगन मे पूर्ण चन्द्र ! अहा, यह मुझे ही भ्रम हुआ, यही तो शारदीय स्वरूप है ! वह देखो-नगरों की सीमा के बाहर तथा नदी के तट पर कास का विकास और निर्मल जल-पूरित नदियों का मन्द प्रवाह, शारदीय चन्द्र का पूर्ण प्रकाश, सरोवरों मे सरोजगण का विकास, कुछ शीत वायु, छिटकी हुई चन्द्रिका का हरित वृक्ष, उच्च प्रासाद, नदी, पर्वत, कटे हुए खेत तथा मातृ-धरणी पर रजत माज्जित आभास ! वाह ! वाह ! यह कैसा नटी की तरह यवनिका-परिवर्तन ! शीत का हृदय कंपानेवाला वेग, हिमपूरित वायु का सन्नाटा, शस्यक्षेत्र में मुक्ताफल समान ओस की बूंदें, उन पर प्रभान-सूर्य-किरण की छाया ! यह सब दृश्य कैसा आनन्द देता है । पुनः कृष्णपक्ष के शिशिर शर्वरी मे गम्भीर शीतवायु का प्रचण्ड वेग, गाढ़ान्धकार, जिसमे कि सामने की परिचित वस्तु देखने में भी चित्त भय से कांप जाता है। यह सब क्या है ? हे देवि ! यह सब तुम्हारी ही आश्चर्यजनक लीला है, इससे तुम्हारे अनन्तं वर्ण-रजित मनोहर रूप को देखकर कौन आश्चर्यचकित नही हो जाता! ३४: प्रसाद वाङ्मय