पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१२८

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। उपयोग की वस्तु की तरह लगाव उत्पन्न करके, उपयोगी बनाती है। प्राणी मात्र का एक वर्ग है, उनमें अधिक उन्नत रूप मनुष्य का है। यहां भी अधूरापन है। इसी के लिए देवत्व की कल्पना है । इस उन्नत रूप का रहस्य मानसिक विकास है । प्रवृत्तियाँ प्राणी मात्र मे है। मनोविकार के रूप में वे मानव हृदय में परिमार्जित होने पर भी अपूर्ण तथा असंस्कृत रहती है। उनकी पूर्णता के लिए सत्य के प्रकाश के लिए, देवत्त्व के आदर्श की सृष्टि है। कला का उद्देश्य है कि वह इसमें सहायक हो, मौन्दर्य से सत्य को प्रकटित करके विश्व का मंगल करे । अब, जिस कला मे मानसिक अवस्था का पूर्ण विकाम हो, अच्छा विश्लेषण हो उसे ही पूर्ण कहेगे। नाटक मे काव्य के तीनों भेद (मिश्र), दृश्य और श्रव्य तथा कला की दृष्टि से मूर्त और अमूर्त रूपो का उपयोग है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है : बहुत से विद्वान् कला की सफलता वही मानते हैं जहा मनुष्य अपने को भूल जाय और तल्लीन हो जाय, वह किमी आदशं के लिए न हो वल अपने लिए अपनी स्थिति रखती हो। नब भी किमी अनुकरणीय वस्तु का स्थान न होने दे, वह स्वयं इसी सिद्धान्त को मम्भवत: 'क ना केवल कला के लिए है' कह सकते है। क्या यह हृदय वृत्ति (Sentiment) को उनेजित करके मोह लेना मात्र ही न होगा ? क्या विवेक-शुद्ध, बुद्ध-मत्य (Reason) से उसका कुछ भी मम्बन्ध होगा? नही किन्तु यही आज की शिक्षा का आदर्श है। कला पक्ष कवल नाटक रूप मे लोकोत्तर चमत्कार और आदर्श-दृश्य नथा श्रव्य, मूर्त और अमूर्न इत्यादि- सब साधनो से मानसिक मंसार को विकास देता है और उमके पास साधन भी प्रचुर परिमाण मे है : शिल्प, संगीत, चित्र, कविता आहार्य, भाव और अग-भंगी से अभिनय पूर्ण होता है । एक नाटक मे ही इन सभी पर विलास है, विकाम हे । इसी से कहते है 'काव्येष नाटकं रम्यं ।' जो नाटक मनोभाष का विश्लेषण करके चमत्कार के बल से मोहता हुआ, अन्त.करण में आदर्श मत्य को स्वयमेव विकसित कर देता है उसे प्लेटो के आदर्श- 'प्रजातन्त्र' को छोड़ कर सभी सभ्य जातियो के साहित्य में सम्मान मिला है। दार्शनिक 'प्लेटो' ने इसका केवल इमलिए बहिष्कार किया है कि चरित्रहीनो से संगठित दल' जगत् में क्षणिक चारित्र्य का प्रचार करता है, किन्तु, यह बात न भुला देनी चाहिए कि 'प्लेटो' के परम अभीष्ट आदर्श का प्रवार व्यक्तियो से ही संगठित जाति मे होगा : तब भी वह व्यक्ति को कोई विशिष्ट पद नही देता है। इधर, मानव समाज अनुकरणशील है, बिना व्यक्तित्व का आदर्श मिले वह सत्य का अनुभव नही कर सकता और उसे हृदयंगम करने को बहुत कम प्रस्तुत रहता है। प्रत्येक विज्ञान को आकार या विचार को नाम-रूप देना ही होगा, जिसे आदर्श कहेंगे । यही २८: प्रसाद वाङ्मय