आदि उसकी उपयोगी वस्तुओं को सबको समझना चाहिए। इन सबों से उसका बहुत घना सम्बन्ध है। साहित्य के उपयोगी सर्वशास्त्र, सब विद्याएँ, सब कलाएं, समझी जा सकती हैं, अत: उन सबकी गणना साहित्य में है। सबकी उन्नति करने से साहित्य की उन्नति होगी। अब फिर हम काव्य की ओर झुकते हैं। हम कह चुके हैं कि काव्य का प्रायः सब विद्याओं से सम्बन्ध है। काव्य के अंग यद्यपि बहुत विस्तृत हैं तो भी हम उसके दो गुणों को लेते हैं जो प्रधान और मुख्यतम हैं । संसार को काव्य से दो तरह के लाभ पहुंचते हैं मनोरंजन और शिक्षा। महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध 'मेघदूत' काव्य में सिवा मनोरंजन के शिक्षा विशेष रूप से नहीं दिखाई पड़ती, और यदि सूक्ष्मतया अन्वेषण किया जाय तो उसमें 'दूत प्रेरण करने में उसे कितना समझाना चाहिए' यह भी निकल सकता है; किन्तु इतनी बात के लिए इतना बड़ा प्रबन्ध लिखना, तथा ऐसी जटिलता से काव्य मर्म समझाने को नाट्यकार लोग गौण उपाय बतलाते हैं। अस्तु, बहुत लोगों का मत है कि वह केवल मनोरंजन के लिए लिखा गया है । 'शिक्षा' यह विशेष स्वतन्त्र रूप से कहीं दिखलाई नही पड़ती, क्योंकि सामान्य- नीति इत्यादि शास्त्र इसी से भरे पड़े हुए हैं; किन्तु जब वह मिलेगा तो सत्कवियों की कविता मे मिला हुआ मिलेगा। काव्य के पाठक और समालोचकगण उसको अलग करके न देखें, उनका परिश्रम वृथा है। शिक्षा का अंश साहित्य के सब १. इस सन्दर्भ में कलकत्ता की एक घटना उल्लेख्य है वहाँ १९३१ के दिसम्बर में अपने सम्बन्धी स्व० मुकुन्दीलाल गुप्त के परिवार में विवाह था। उसमें किसी पद्धति पर पण्डितों में मतभेद ऐसा उग्र हुआ कि 'मन्यते मन्यते यदि न मन्यते- दण्डदीयताम्' की स्थिति आ गई । कोलाहल करते पण्डित लोग निर्णय हेतु पहुंचे वे सो रहे थे रात के दो बजे थे उठकर पूछा तब एक ने कहा यहां मतभेद है- प्रसादजी आप व्यवस्था दें। 'नही वह अधिकार हम वैश्यों को नहीं किन्तु समाधान चाहते हैं. तो प्रात: 'गादाधरी' लेकर आएं, इस समय कृपा करें।' प्रातः पण्डित लोग पहुंचे पोथी सामने रखी--'अमुक अध्याय खोलिए और ४., श्लोक के बाद बाँच देखिए कि इस प्रसंग में आपके शास्त्रकारों का क्या मत है' -समाधान हो गया। एक सप्ततीर्थ ने पूछा 'प्रसादजी आपका विषय तो साहित्य है इससे क्या तात्पर्य' : 'और साहित्य का तात्पर्य उस सबसे है जो आकाश और पाताल के बीच है' संवत् १९६७ अर्थात ई० १९१० का यह कथन १९३१ के इस प्रसंग से संवादित है। (सं०) हिन्दी साहित्य सम्मेलन : १९
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