पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१०

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अजातशत्रु (कथा-प्रसंग) इतिहास में घटनाओं की प्रायः पुनरावृत्ति होते देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसमें कोई नयी घटना होती ही नहीं। किन्तु असाधारण नयी घटना भी भविष्यत् में फिर होने की आशा रखती है। मानवसमाज की कल्पना का भण्डार अक्षय है, क्योंकि वह इच्छा-शक्ति का विकास है। इन कल्पनाओं का, इच्छाओं का मूल-सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-शक्ति किसी व्यक्ति या जाति में केन्द्रीभूत होकर अपना सफल या विकसित रूप धारण करती है, तभी इतिहास की सृष्टि होती है। विश्व में जब तक कल्पना इयत्ता को नहीं प्राप्त होती, तब तक वह रूप-परिवर्तन करती हुई, पुनरावृत्ति करती ही जाती है। समाज की अभिलाषा अनन्त स्रोतवाली है। पूर्व कल्पना के पूर्ण होते-होते एक नयी कल्पना उसका विरोध करने लगती है, और पूर्व कल्पना कुछ काल तक ठहर कर, फिर होने के लिए अपना क्षेत्र प्रस्तुत करती है। इधर इतिहास का नवीन अध्याय खुलने लगता है। मानवसमाज के इतिहास का इसी प्रकार संकलन होता है ।' १. सजातीय भावों की आकृति अथवा वृत्त कल्पना है जिसकी स्वभाव-स्फूर्ति चिन्तामयी होती है। भावमयी सृष्टि अथवा पार्थिवी सृष्टि दोनों ही शक्तिवैभव की कारणावस्था के जागरण-प्रसार पर निर्भर कार्य हैं। ऐसे जागरणप्रसार की लाक्षणिक अभिव्यक्ति में स्पन्दमार्गीय मनीपियों ने एक पारिभाषिक शब्द 'उन्मेष' नियत किया है, जिसकी विवृत्ति में स्पन्दकारिको कहती है एकचिन्ता प्रसक्तस्यात्ततस्यादपरोदय:। उन्मेषः स तु विज्ञेयः स्वयंतमुपलक्षयेत् ॥ इस सृष्ट-जगत की परिधि में ही मानव-समाज के इतिहास का सृजनसंकलन होता है-जिसके उदय अथवा उन्मेष का ऋत और कल्पना का ऋतजो चिता-स्फत्ति की आकृति है - एक ही है। चिन्ता के लयोदय का ही १० : प्रसाद वाङ्मय