पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९७

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पंचम दृश्य आपका (यज्ञ-मण्डप में हरिश्चन्द्र, रोहित, वसिष्ठ, होता इत्यादि बैठे हैं। शुन शेफ यूप मे बँधा हुआ है । शक्ति उसे बध करने के लिए बढ़ता है, पर महमा रुक जाता है) वसिष्ठ-शक्ति, तुम्हारी शकि कहां है जो नहीं करता है बलि-कर्म, देर है हो रही । शक्ति-पिता, आप इस पशु के निष्ठुर तात से भी वठोर है। जो आज्ञा यों दे रहे । (शस्त्र फेंक कर) कर्म नहीं, यह मुझसे होगा घोर है । (प्रस्थान । अजीगर्त का प्रवेश) अजीगत-और एक सौ गाये मुझको दीजिये, मैं कर दूंगा काम शीघ्र ही। वसिष्ठ-अच्छा अच्छा, तुम्हें मिलेंगी और भी सौ गायें । लो पहले इसको तो करो। (अभीगत शस्त्र उठा कर चलता है) (आकाश की ओर देखकर) शुनःशेफ-हे हे करुणा-सिन्धु, नियन्ता विश्व के हे प्रतिपालक तृण, वीरुध के, सर्प के, हाय, प्रभो ! क्या हम इस तेरी सृष्टि के नही, दिखाता जो मुझ पर करुणा नहीं। हे ज्योतिप्पथ-स्वामी ! क्यों इस विश्व की- रजनी में, देते नहीं अनाय को, जो असहाय पुकारता पड़ा दु:ख के गर्त बीच अति दीन हो हाय ! तुम्हारी करुणा को भी क्या हुआ, जो न दिखाती स्नेह पिता का पुत्र से । जगतपिता ! हे जगद्वन्धु, हे हे प्रभो, तुम तो हो, फिर क्यों दुख होता है हमें ? त्राहि त्राहि करुणालय ! करुणा-सद्म में रखो, बचा लो ! विनती है पदपद्म में। तारा प्रकाश इस %D करुणालय :८१