नौके! चलो, दीप धीरे, और जरा धीरे आह, तुम्हें क्या जल्दी है उस ओर की। कहीं नही उत्पात प्रभंजन का यहाँ। मलयानिल अपने हाथों पर है धरे तुम्हें लिये जाता है अच्छी चाल से प्रकृति सहचरी-सी कैसी है साथ में प्रेम-सुधामय चन्द्र तम्हारा नौके ! है अनुकूल पवन यह चल रहा, और ठहरती, हाँ इठलाती ही चलो। ज्योतिष्मान-महाराज ! इस तट-कानन को देखिये, कैसा है हो रहा सघन तरु-जाल से। इसी तरह यह जनपद पहले था, प्रभो ! कानन- -शैल भरे थे चारों ओर ही हिंस्र जन्तु से पूर्ण, मनुज-पशु थे यहाँ । आर्य-पूर्व-पुरुषों की ही यह कीत्ति है, अब ये उद्यान सजे फल, फूल से, बने मनोहर क्रीड़ा-कूट विचित्र ये। इक्ष्वाकू-कुल भुजबल से निर्बीज हो हुए दस्युदल, अब न कभी वे रोष से आँख उठाते आर्यो को देख के। आर्य-पताका . है फहराती अरुण हो। हरिश्चन्द्र-आर्यों के अनुकूल देवगण हैं सदा विश्व हमारा शासन अभिनय रंग है हम पर है दायित्व सभी सुख-शान्ति का मब विभूतियाँ और उपकरण गर्व के आर्य जाति के चरणों में उपहार है। (नेपथ्य मे घोर गर्जन) उत्पात ! चलो जल्दी करो मांझी ! तट पर नाव ले चलो शीघ्र ही। मांझी-प्रभो ! स्तब्ध है नाव; न हिलती है। अरे देखो तो इसको क्या है, है हो गया ! (नेपथ्य से गर्जन के साथ) मिथ्याभाषी यह राजा पाखण्ड हम यह कैसा ७४: प्रसाद वाङ्मय
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