पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३४

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ध्रुवस्वामिनी––शत्रुओं के लिए मेरे पास कुछ नही है। अधिक हठ करने पर दण्ड मिलना भी असम्भव नहीं।

मिहिरदेव––(दीर्घ निःश्वास लेकर) पागल लड़की, हो चुका न? अब भी तू न चलेगी?

[कोमा सिर झुका लेती है]

मन्दाकिनी––तुम चाहती क्या हो?

कोमा––रानी, तुम भी स्त्री हो। क्या स्त्री की व्यथा न समझोगी? आज तुम्हारी विजय का अन्धकार चाहे तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढँक ले, किन्तु सब के जीवन में एक बार प्रेम की दीपावली जलती है। जली होगी अवश्य। तुम्हारे भी जीवन में वह आलोक का महोत्सव आया होगा, जिसमें हृदय हृदय को पहचानने का प्रयत्न करता है, उदार बनता है और सर्वस्व दान करने का उत्साह रखता है। मुझे शकराज का शव चाहिए।

ध्रुवस्वामिनी––(सोच कर) जलो, प्रेम के नाम पर जलना चाहती हो तो तुम उस शव को ले जाकर जलो। जीवित रहने पर मालूम होता है कि तुम्हें अधिक शीतलता मिल चुकी है। अवश्य तुम्हारा जीवन धन्य है। (सैनिक से) इसे ले जाने दो।

[कोमा का प्रस्थान]

मन्दाकिनी––स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नही। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलम्ब खोजने वाले हाथो से यह पुरुषो के चरणो को पकड़ती है और वह सदैव ही इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है। तब भी यह बावली मानती है?

ध्रुवस्वामिनी––भूल है––भ्रम है। (ठहर कर) किन्तु उसका कारण भी है। पराधीनता की एक परम्परा-सी उनकी नस-नस में––उनकी चेतना में न जाने किस युग से घुस गयी है। उन्हे समझ कर भी भूल करनी पडती है। क्या वह मेरी भूल न थी––जब मुझे निर्वासित किया गया, तब मैं अपनी आत्म-मर्यादा के लिए कितनी तड़प रही थी और राजाधिराज रामगुप्त के चरणों में रक्षा के लिए गिरी; पर कोई उपाय चला? नहीं। पुरुषो की प्रभुता का जाल मुझे अपने निर्दिष्ट पथ पर ले ही आया। मन्दा! दुर्ग की विजय मेरी सफलता है या मेरा दुर्भाग्य, इसे मैं नही समझ सकी हूँ। राजा से मैं सामना करना नही चाहती। पृथ्वी-तल से जैसे एक साकार घृणा निकल कर मुझे अपने पीछे लौट चलने का संकेत कर रही है। क्यों, क्या यह मेरे मन का कलुष है? क्या मैं मानसिक पाप कर रही हूँ?

[उन्मत्त भाव से प्रस्थान]

मन्दाकिनी––नारी-हृदय, जिसके मध्य-बिन्दु से हट कर, शास्त्र का एक मंत्र,

७१४ : प्रसाद वाङ्मय