पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७२८

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वह देख, नील लोहित रंग का धूमकेतु अविचल भाव से इस दुर्ग की ओर कैसा भयानक संकेत कर रहा है।

कोमा––(उधर देखते हुए) तब भी एक क्षण मुझे...

मिहिरदेव––पागल लड़की! अच्छा, मैं फिर आऊँगा। तू सोच ले, विचार कर ले। (जाता है)

कोमा––जाना ही होगा! तब यह मन की उलझन क्यों? अमंगल का अभिशाप अपनी क्रूर हँसी से इस दुर्ग को कँपा देगा, और सुख के स्वप्न विलीन हो जायँगे। मेरे यहाँ रहने से उन्हें अपने भावों को छिपाने के लिए बनावटी व्यवहार करना होगा; पग-पग पर अपमानित होकर मेरा हृदय उसे सह नहीं सकेगा। तो चलूँ! यही ठीक है! पिताजी! ठहरिए, मैं आती हूं।

शकराज––(प्रवेश करके) कोमा?

कोमा––जाती हूँ, राजा!

शकराज––कहाँ? आचार्य के पास? मालूम होता है कि वे बहुत ही दुःखी होकर चले गये हैं।

कोमा––धूमकेतु को दिखाकर उन्होंने मुझसे कहा है कि तुम्हारे दुर्ग में रहने से अमंगल होगा।

शकराज––(भयभीत होकर उसे देखता हुआ) ओह! भयावनी पूँछवाला धूमकेतु! आकाश का उच्छृंखल पर्यटक! नक्षत्रलोक का अभिशाप! कोमा! आचार्य को बुलाओ। वे जो आदेश देंगे, वही मैं करूँगा। इस अमंगल की शान्ति होनी चाहिए।

कोमा––वे बहुत चिढ़ गये हैं। अब उनको प्रसन्न करना सहज नहीं है। वे मुझे अपने साथ लिवा जाने के लिए मेरी प्रतीक्षा करते होंगे।

शकराज––कोमा! तुम कहाँ जाओगी?

कोमा––पिताजी के साथ।

शकराज––और मेरा प्यार, मेरा स्नेह, सब भुला दोगी? इस अमंगल की शान्ति करने के लिए आचार्य को न समझाओगी?

कोमा––(खिन्न होकर) प्रेम का नाम न लो! वह एक पीड़ा थी जो छूट गयी। उसकी कसक भी धीरे-धीरे दूर हो जायगी। राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करनी। मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्त्वमयी पुरुष-मूर्ति की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े रहने की दृढ़ता थी। इस स्वार्थ-मलिन कलुष से भरी मूर्ति से मेरा परिचय नहीं। अपने तेज की अग्नि में जो सब कुछ भस्म कर सकता हो, उस दृढ़ता का, आकाश के नक्षत्र कुछ बना-बिगाड़ नहीं सकते। तुम आशंका-मात्र से दुर्बल––कंपित और भयभीत हो।

७०८ : प्रसाद वाङ्मय