पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१४

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रामगुप्त––(चौंक कर) क्या प्राण देने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं? ऊँ-हूँ, तब तो महादेवी से पूछिए।

ध्रुवस्वामिनी––(तीव्र स्वर से) और आप लोग, कुबड़ों, बौनों और नपुंसकों का नृत्य देखेंगे। मैं जानना चाहती हूँ कि किसने सुख-दुख में मेरा साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा अग्नि-वेदी के सामने की है?

रामगुप्त––(चारों ओर देख कर) किसने की है, कोई बोलता क्यों नहीं?

ध्रुवस्वामिनी––तो क्या मैं राजाधिराज रामगुप्त की महादेवी नही हूँ?

रामगुप्त––क्यों नही? परन्तु रामगुप्त ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा न की होगी। मैं तो उस दिन द्राक्षासव में डुबकी लगा रहा था। पुरोहितों ने न जाने क्या-क्या पढ़ा दिया होगा। उन सब बातों का बोझ मेरे सिर पर! (सिर हिला कर) कदापि नही!

ध्रुवस्वामिनी––(निस्सहाय होकर दीनता से शिखरस्वामी के प्रति) यह तो हुई राजा की व्यवस्था, अब सुनो मंत्री महोदय क्या कहते है!

शिखरस्वामी––मैं कहूँगा देवि, अवसर देख कर राज्य की रक्षा करने वाली उचित सम्मति दे देना ही तो मेरा कर्तव्य है। राजनीति के सिद्धान्त में राष्ट्र की रक्षा सब उपायों से करने का आदेश है। उसके लिए राजा, रानी, कुमार और अमात्य सब का विसर्जन किया जा सकता है; किन्तु राज-विसर्जन अन्तिम उपाय है।

रामगुप्त––(प्रसन्नता से) वाह! क्या कहा तुमने! तभी तो लोग तुम्हें नीति-शास्त्र का बृहस्पति समझते हैं!

ध्रुवस्वामिनी––अमात्य, तुम बृहस्पति हो चाहे शुक्र, किन्तु धूर्त होने से ही क्या मनुष्य भूल नहीं करता? आर्य समुद्रगुप्त के पुत्र को पहचानने में तुमने भूल तो नहीं की? सिंहासन पर भ्रम से किसी दूसरे को तो नही बिठा दिया!

रामगुप्त––(आश्चर्य से) क्या? क्या?? क्या???

ध्रुवस्वामिनी––कुछ नहीं, मैं केवल यही कहना चाहती हूँ कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-सम्पत्ति समझ कर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा नारी का गौरव, नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हाँ, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए मैं स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी।

शिखरस्वामी––(मुँह बना कर) उँह, राजनीति में ऐसी बातों को स्थान नहीं। जब तक नियमों के अनुकूल सन्धि का पूर्ण रूप से पालन न किया जाय, तब तक सन्धि का कोई अर्थ ही नहीं।

ध्रुवस्वामिनी––देखती हूँ कि इस राष्ट्र-रक्षा-यज्ञ में रानी की बलि होगी ही।

६९४ : प्रसाद वाङ्मय