पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८८

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प्रेमलता-किंतु महोदय ! मैं आपके विरुद्ध आप ही की एक कविता गाकर सुनाना चाहती हूँ। मुकुल-ठहरो प्रेमलता! वनलता-वाह | गाने न दीजिए, ! अब तो मैं समझती हूँ कि कविजी को जो कुछ कहना था, कह चुके । [सब लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं, आनंद सबको विचार- विमूढ़-सा देखकर हंसने लगता है] प्रेमलता तो फिर क्या आज्ञा है ? आनद-हाँ-हाँ, बड़ी प्रसन्नता से, हम लोगो के तर्को, विचारो और विवादों से अधिक संगीत से आनंद की उपलब्धि होती है । प्रेमलना-कितु यह दु ख का गान है । तब भी मैं गाती हैं। [गान] जलधर की माला घुमड़ रही जीवन-घाटी पर-जलघर को माला। -आशा लतिका कंपती थरथर- गिरे कामना-कुंज हहरकर अंचल में है उपल रही भर-यह करुणा-बाला। यौवन ले आलोक किरन की डूब रही अभिलाषा मन की क्रंदन चुंबित निठुर निधन की बनती बनमाला। अंधकार गिरि-शिखर चूमती- असफलता की लहर घूमती क्षणिक सुखों पर सतत झूमती-शोकमयी ज्वाला। [संगीत समाप्त होने पर एक-दूसरे का मुंह बड़ी गम्भीरता की मुद्रा से देखने लगते हैं] आनद-यह स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है । ऐसी भावनाएं हृदय को कायर पनाती हैं । रसालजी, यह आपकी ही कविता है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि. रसाल-मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मेरी कल्पना की दुर्बलता है। मैं इससे बचने का प्रयत्न करूंगा। (सब लोगों की ओर देखकर) और आप लोग भी अनिश्चित जीवन की निराशा के गान भूल जाइये । प्रेम का प्रचार करके, परस्पर प्यार करके, दु.खमय विचारों को दूर भगाइये । मुकुल-किंतु प्रेम मे क्या दुःख नही हैं ? ६६८: प्रसाद वाङ्मय