पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६७२

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[चन्द्रगुप्त शस्त्र देता है राक्षस सविनय ग्रहण करता है] सब-सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य की जय ! प्रतिहार-(प्रवेश करके)-सम्राट् सिल्यूकस--शिविर से निकल चुके हैं। चाणक्य-उनकी अभ्यर्थना राजमन्दिर मे होनी चाहिये, तपोवन में नहीं। चन्द्रगुप्त-आर्य, आप उस समय उपस्थित नहीं रहेंगे। चाणक्य-देखा जायगा। [सबका प्रस्थान] दश्या न्त र चौदहवाँ दृश्य [राजसभा | एक ओर से सपरिवार चन्द्रगुप्त और दूसरी ओर से साइबटियस, मेगास्थनीज, एलिस और कार्नेलिया के साथ सिल्यूकस का प्रवेश | सब बैठते हैं] चन्द्रगुप्त-विजेता सिल्यूकस का में अभिनन्दन करता हूँ --स्वागत ! सिल्यूकस-सम्राट चन्द्रगुप्त ! आज मैं विजेता नही, विजित से अधिक भी नहीं-मैं सन्धि और सहायता के लिए आया हूँ। चन्द्रगुप्त--कुछ चिन्ता नही सम्राट्, हमलोग शस्त्र-विनिमय कर चुके, अब हृदय का विनिमय.... सिल्यूकस-हाँ, हाँ कहिये। चन्द्रगुप्त-राजकुमारी स्वागत ! मैं उस कृपा को नही भूल गया जो ग्रीक- शिविर में रहने के समय मुझे आपसे प्राप्त हुई थी। सिल्यूकस--हाँ कार्नी-चन्द्रगुप्त उसके लिए कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं । कार्नेलिया--मैं आपको भारतवर्ष का सम्राट् देखकर कितनी प्रसन्न हूँ। चन्द्रगुप्त-अनुगृहीत हुआ--(सिल्यूकस से) औटिगोनस से युद्ध होगा ! सम्राट् सिल्यूकस ! गज-सेना आपकी सहायता के लिए जायगी। हिरात में आपके जो प्रतिनिधि रहेंगे, उनसे समाचार मिलने पर और भी सहायता के लिए आर्यावर्त प्रस्तुत हैं। सिल्यूकस-इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। सम्राट् चन्द्रगुप्त आजसे हम लोग बढ़ मैत्री के बन्धन में बंधे। प्रत्येक का दुःख-सुख दोनों का होगा, किन्तु एक अभिलाषा मन में रह जायगी। चन्द्रगुप्त-वह क्या ? १५२: प्रसाद वाङ्मय