पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६६६

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चन्द्रगुप्त-गुरुदेव ने यहां भी मेरा ध्यान नही छोड़ा ! मैं उनका अपराधी हूँ सहरण ! सिंहरण-मैं यहां देख लूंगा, आप शीघ्र जाइये -समय नही है ! मैं भी नाता हूँ। सेना-महाबलाधिकृत सिंहरण की जय ! [एक ओर चन्द्रगुप्त का दूसरी ओर सिंहरण आदि का प्रस्थान] दृश्या न्त र ग्यारहवाँ दृश्य [यवन शिविर का एक भाग/चिन्तित भाव से राक्षस का प्रवेश] राक्षस-क्या होगा ? आग लग गयी है, बुझ न सकेगी? तो मैं कहाँ रहूंगा ? प्या हम सब ओर से गये ? सुवासिनी-(प्रवेश करके) सब ओर से गए राक्षस ! समय रहते तुम सचेत राक्षस-तुम कैसे सुवासिनी ! सुवासिनी-तुम्हे खोजते हुए बन्दी बना ली गयी। अब उपाय क्या है ? चलोगे? राक्षस-कहाँ सुवासिनी ? इधर खाई, उधर पर्वत ! कहाँ चलूँ ? सुवासिनी-मैं इस युद्ध-विप्लव से घबरा रही हूँ। वह देखो रण-वाद्य बज रहे हैं । यह स्थान भी सुरक्षित नही-मुझे बचाओ अस ! (भय का अभिनय करती है) राक्षम-(उसे आश्वासन देते हुए) मेरा कर्त्तव्य मुझे पुकार रहा है। प्रिये, मैं रणक्षेत्र से भाग नही सकता, चन्द्रगुप्त के हाथो प्राण देने मे ही कल्याण है ! किन्तु तुमको" (इधर-उधर देखता है/रण-कोलाहल बढ़ता है) सुवासिनी -बचाओ। राक्षस-(निःश्वास लेकर) अदृष्ट । देव प्रतिकूल है--चलो सुवामिनी ! [दोनों का प्रस्थान/एकाकिनी कार्नेलिया का प्रवेश/रण-शब्द] कार्नेलिया--यह क्या । पराजय न हुई होती तो शिविर पर आक्रमण कैसे होता-(विचार करके) चिन्ता नही, ग्रीक बालिका भी प्राण देना जानती है । आत्म-मम्मान--ग्रीक आत्म-सम्मान जिये ! (छुरी निकालती है)-तो अन्तिम ममय एकबार नाम लेने में कोई अपराध है ? चन्द्रगुप्त ! [विजयी चन्द्रगुप्त का प्रवेश] ६४६ : प्रसाद वाङ्मय