पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६६१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दूसरा सैनिक-शिविर आज कहाँ रहेगा देव ? चन्द्रगुप्त-अश्व की पीठ पर सैनिक ! कुछ खिला दो और अश्व बदलो। एक क्षण विश्राम नहीं। हाँ ठहरो-सब सेना-निवेशों में आज्ञापत्र भेज दिये गये ? दूसरा सैनिक-हाँ देव ! चन्द्रगुप्त-तो अब मै बिजली से भी शीघ्र पहुंचना चाहता हूँ। चलो, शीघ्र प्रस्तुत हो ! (सैनिकों का प्रस्थान/आकाश की ओर देखकर) अदृष्ट ! खेल न करना ! चन्द्रगुप्त मरण से अधिक भयानक का आलिंगन करने के लिए प्रस्तुत है ! विजय-मेरे चिर सहचर ! (हँसते हुए प्रस्थान) दृश्यान्त र नवम दृश्य [ग्रीक शिविर] कार्नेलिया-एलिस ! यहां आने पर मन जैसे उदास हो गया है। इस सन्ध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है ! सरला सन्ध्या पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदित होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टि की रक्षा, हीरों की कील से जड़ी हुई काली ढाल लेकर कर रही है और पवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुमा जा रहा है यह कहां जायगा एलिस । एलिस-अपने प्रिय के पास ! कार्नेलिया-दुर ! तुझे तो प्रेम-ही-प्रेम सूझता है । (दासी का प्रवेश) दासी-राजकुमारी ! एक स्त्री बन्दी बनकर आयी है । कार्नेलिया-(आश्चर्य से) तो उसे पिताजी ने मेरे पास भेजा होगा, उसे शीघ्र ले आओ ! (बासी का प्रस्थान | सुवासिनी सहित पुनः प्रवेश) तुम्हारा नाम क्या है? सुवासिनी--मेरा नाम सुवासिनी है। मैं किसी को खोजने जा रही थी, सहसा बंदी कर ली गयी । वह भी कदाचित् आप के यहां बंदी हो ! कार्नेलिया-उसका नाम ? सुवासिनी-राक्षस ! कार्नेलिया-ओहो, तुमने उससे ब्याह कर लिया है क्या ? तब तो तुम सचमुच अभागिनी हो। सुवासिनी-(चौंककर) ऐसा क्यों? अभी तो ब्याह होनेवाला है, क्या आप उसके सम्बन्ध में कुछ जानती हैं । चन्द्रगुप्त : ६४१