पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५७

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चाणक्य-हिंसकर) सुवासिनी ! वह स्वप्न टूट गया-इस विजन बालुका- सिंधु में एक सुधा की लहर दौड़ पड़ी थी, किन्तु तुम्हारे एक भ्रूभंग ने उसे लौटा दिया ! मैं कंगाल हूं (ठहरकर) सुवासिनी-मैं तुम्हें दण्ड दूंगा। चाणक्य की नीति में अपराधों के दण्ड से कोई मुक्त नहीं। सुवासिनी -क्षमा करो विष्णुगुप्त ! चाणक्य- असम्भव है । तुम्हें राक्षस से ब्याह करना ही होगा, इसी में हमारा तुम्हारा और मगध का कल्याण है ! सुवासिनी-निष्ठुर ! निर्दय ! चाणक्य-(हंसकर) तुम्हें अभिनय भी करना पड़ेगा ! इसमें समस्त संचित कौशल का प्रदर्शन करना होगा। सुवासिनी, तुम्हें बंदिनी बनकर ग्रीक-शिविर में राक्षस और राजकुमारी के पास पहुंचना होगा-राक्षम को देशभक्त बनाने के लिए और राजकुमारी की पूर्वस्मृति में आहुति देने के लिए | कार्नेलिया चन्द्रगुप्त परिणीता होकर सुखी हो सकेगी-कि नही, इसकी परीक्षा करनी होगी। (सुवासिनी सिर पकड़कर बैठ जाती है | उसके सिर पर हाथ रखकर) सुवामिनी ! तुम्हारा प्रणय, स्त्री और पुरुष के रूप मे केवल राक्षस मे अंकुरित हुआ, और शंशव का वह सब-केवल हृदय की स्निग्धता थी। आज इसी कारण से राक्षस का प्रणय द्वेष मे बदल रहा है, परन्तु काल पाकर वह अंकुर हरा-भरा और सफल हो सकता है ! चाणक्य यह नहीं मानता है कि कुछ भी असंभव है। तुम राक्षस से प्रेम करके सुखी हो सकती हो, क्रमश. उस प्रेम का सच्चा विकास हो सकता है। और मैं अभ्यास करके तुमसे उदासीन हो सकता हूं-यही मेरे लिए अच्छा होगा। मानव-हृदय में वह भाव-सृष्टि तो हुआ ही करती है। यही हृदय का रहस्य है, तब हमलोग जिस सृष्टि में स्वतन्त्र हों, उसमे परवशता क्यो मानें ? मैं कर हूं, केवल वर्तमान के लिए, भविष्य के सुख, और जाति के लिए, परिणाम के लिए नही ! श्रेय के लिए मनुष्य को सब त्याग करना चाहिये, सुवामिनी-जाओ! सुवासिनी-(वीनता से चाणक्य का मुंह देखते हुए) तो विष्णुगुप्त, तुम इतना बड़ा त्याग करोगे ! अपने हाथो बनाये हुए इतने बडे साम्राज्य का शासन हृदय की आकांक्षा के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी को सौंप दोगे ! और सो भी मेरे लिए ! चाणक्य-(घबड़ाकर) मैं बड़ा विलम्व कर रहा हूं ! सुवासिनी, आर्य दांडायन के आश्रम मे पहुँचने के लिए मैं पथ भूल गया हूं! मेघ के समान मुक्त, वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के ममान अन्गध आलोक विकीर्ण करना, सागर के समान कामना-नदियों को पचाते हुए सीमा के बाहर न जाना -यही तो ब्राह्मण का आदर्श है । मुझे चन्द्रगुप्त को मेघमुक्त चन्द्र देखकर इस रंगमंच से हट जाना है ! चन्द्रगुप्त : ६३७