पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

, स्वतन्त्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति का भेद नहीं। जिसकी खड्ग-प्रभा में विजय का आलोक चमकेगा, वही वरेण्य है । उसी की पूजा होगी, भाई ! तक्षशिला मेरी नहीं और तुम्हारी भी नहीं, तक्षशिला आर्यावर्त का एक भू-माग है, वह आर्यावर्त की होकर ही रहे, इसके लिए मर मिटो! फिर उसके कणों में तुम्हारा ही नाम अंकित होगा। मेरे पिता स्वर्ग में इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करेंगे। वहीं की अप्सराएं विजय-माला लेकर खड़ी होंगी, सूर्य-मण्डल मार्ग बनेगा और उज्वल आलोक से मण्डित होकर गाधार का राजकुल अमर हो जायगा। चाणक्य-साधु-अलके-साधु ! आंभीक -(खड्ग खींचकर) खड्ग की शपथ-मै कर्तव्य से च्युत न होऊँगा । सिहरण -(उसका आलिंगन करके) मित्र आमीक । मनुष्य साधारणतः पशुधर्मा है, विचारशील होने से मनुष्य होता है और नि स्वार्थ कर्म करने से वही देवता भी हो सकता है। [आंभीक का प्रस्थान सिहरण अलका, सम्राट किस मानसिक वेदना मे दिन बिताते होगे ? अलका -वे वीर है मालव, उन्हे विश्वास है कि मेरा कुछ कार्य है। उसकी साधना के लिए प्रकृति, अदृष्ट, दैव या ईश्वर कुछ-न-कुछ अवलम्ब जुटा ही देगा ! सहायक चाहे आर्य चाणक्य हो या मालव ! सिंहरण-अलका, उस प्रचण्ड पराक्रम को मै जानता हूँ। परन्तु मै यह भी जानता हूँ कि सम्राट् मनुष्य है । अपने से बार-बार सहायता करने के लिए कहने में, मानव-स्वभाव विद्रोह करने लगता है । यह सौहार्द और विश्वास का सुन्दर अभिमान । उस समय मन चाहे अभिनय करता हो मघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अंध होकर लडता है-कहता है-अपने को बचाऊंगा नही, जो मेरे मित्र हों, आवे और अपना प्रमाण दे । [दोनों का प्रस्थान सुवासिनी का प्रवेश] चाणक्य - सुवासिनी, तुम यहाँ कैसे ? सुवासिनी सम्राट को अभी तक आपका पता नही, पिताजी ने इसीलिए मुझे भेजा है। उन्होंने कहा-जिस खेल का आरम्भ किया है, उसका पूर्ण और सफल अन्त करना चाहिये। चाणक्य-क्यों करे सुवासिनी, तुम राक्षस के साथ सुखी जीवन बिताओगी, यदि इतनी भी मुझे आणा होती"वह तो यवन-सेनानी है और तुम मगध की मन्त्रि- कन्या ! क्या उससे परिणय कर सकोगी? सुवासिनी- (निःश्वास लेकर) राक्षस से ! नही-असम्भव ! चाणक्य तुम इतने निर्दय हो। ६३६ : प्रसाद वाङ्मय