पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५१

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! सिंहरण-मालविका की हत्या"(गद्गद् कण्ठ से) आपका परिच्छद पहनकरे वह आपकी ही शय्या पर लेटो थी। चन्द्रगुप्त-तो क्या, उसने इसीलिए मेरे शयन का प्रबन्ध दूसरे प्रकोष्ठ में किया-आह ! मालविका ! सिंहरण-आर्य चाणक्य की सूचना पाकर नायक पूरे गुल्म के साथ राजमन्दिर की रक्षा के लिए प्रस्तुत था ! एक छोटा-सा युद्ध होकर वे हत्यारे पकड़े गये । परन्तु उनका नेता राक्षस भाग निकला। चन्द्रगुप्त-क्या ! राक्षस-उगका नेता था ? सिंहरण-हाँ सम्राट् ! गुरुदेव बुलाये जायें ! चन्द्रगुप्त-वही तो नहीं हो सकता, वे चले गये । कदाचित् न लौटेगे। सिंहरण-ऐसा क्यों ? क्या आपने कुछ कह दिया ? चन्द्रगुप्त-हाँ सिंहरण ! मैंने अपने माता-पिता के चले जाने का कारण पूछा था ! सिंहरण-- (निश्वास लेकर) तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन कर रही है ! मनाद, मैं गुरुदेव को खोजने जाता हूँ ! चन्द्रगुप्त-(विरक्ति से) जाओ, ठीक है--अधिक हर्ष, अधिक उन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है-(सिंहरण का प्रस्थान) पिता गये, माता गई, गुरुदेव गये, कन्धे-से-कन्धा मिलाकर प्राभ देनेवाला चिर-सहचर सिंहरण गया ! तो भी चन्द्रगुप्त को रहना पड़ेगा और रहेगा, परन्तु मालविका-आह वह स्वर्गीय कुसुम ! [चिन्तित भाव से प्रस्थान] दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [सिंधु तट पर पर्णकुटी में चाणक्य और कात्यायन] चाणक्य-कात्यायन, सो नही हो सकता । मैं अब मन्त्रित्व नही ग्रहण करने का। तुम यदि किसी प्रकार मेरा रहस्य खोल दोगे, तो मगध का अनिष्ट करोगे । कात्यायन-तब मैं क्या करूं ? चाणक्य, मुझे तो अब इस राजकाज में पड़ना अच्छा नहीं लगता। चाणक्य-जब तक गांधार का उपद्रव है, तबतक तुम्हे बाध्य होकर करना पड़ेगा। बताओ, नया समाचार क्या है ? कात्यायन-राक्षस सिल्यूकस की कन्या को पढ़ाने के लिए वहीं रहता है और चन्द्रगुप्त : ६३१