पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४५

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चाणक्य-मैं अपने अधिकार और दायित्व को समझकर कहता हूँ कि यह उत्सव न होगा। मौर्य-पत्नी-तो मैं ऐसी पराधीनता में नहीं रहना चाहती (मौर्य से) समझा न ! हमलोग आज भी बन्दी हैं । मौर्य-(क्रोध से) क्या कहा-बन्दी ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता-हमलोग चलते हैं ! देखू किसकी सामर्थ्य है जो रोके । अपमान से जीवित रहना मौर्य नहीं जानता है । चलो- [चाणक्य और कात्यायन को छोड़कर सब जाते हैं] कात्यायन-विष्णुगुप्त, तुमने कुछ समझकर ही तो ऐसा किया होगा। फिर भी मौर्य का इस तरह चले जाना चन्द्रगुप्त को." चाणक्य-बुरा लगेगा ! क्यों-भला लगने के लिए मैं कोई काम नहीं करता। कात्यायन -परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है। तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी चले जाओ। बको मत ! [कात्यायन का प्रस्थान] चाणक्य (स्वगत) कारण समझ में नही आता--यह वात्याचक्र क्यों ? (विचारता हुआ) -क्या कोई नवीन अध्याय खुलनेवाला है ? अपनी विजयों पर मुझे विश्वास है, फिर यह क्या ? [सोचता है/सुवासिनी का प्रवेश] सुवासिनी-विष्णुगुप्त चाणक्य--कहो सुवासिनी ! सुवासिनी-अभी परिषद्-गृह से जाते हुए पिताजी बहुत दुखी दिखाई दिए। तुमने अपमान किया क्या ? चाणक्य-यह तुमसे किसने कहा ? इस उत्सव को रोक देने से साम्राज्य का कुछ वनता-बिगड़ता नही। मौर्य का जो कुछ है, वह मेरे दायित्व पर है। अपमान हो या मान, मैं उसका उत्तरदायी हूँ। और, पितृव्य तुल्य शकटार को मैं अपमानित करूंगा, यह तुम्हें कैसे विश्वास हुआ । सुवासिनी--तो राक्षस ने ऐसा क्यों.... चाणक्य-कहा--ऐं ? सो तो कहना ही चाहिये और तुम्हारा भी उस पर विश्वास होना आवश्यक है, क्यों है न सुवासिनी ? सुवासिनी-विष्णुगुप्त में एक समस्या में डाल दो गई हूँ। चाणक्य--तुम स्वयं पड़ना चाहती हो, कदाचित् पह ठीक भी है। सुवासिनी--व्यंग न करो, तुम्हारी कृपा मुझ पर होगी ही, मुझे इसका विश्वास है। चन्द्रगुप्त : ६२५