पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३६

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[नागरिकों का प्रवेश]] पहला नागरिक-वेण और कंस का शासन क्या दूसरे प्रकार का रहा होगा? दूसरा नागरिक -ब्याह की वेदी से वर-वधू को घसीट ले जाना, इतने बड़े नागरिक का यह अपमान ! अन्याय है। तीसरा नागरिक-सो भी अमात्य राक्षस और सुवासिनी को ! कुसुमपुर के दो सुन्दर फूल ! चौथा नागरिक-और सेनापति, मन्त्री, सबों को अन्धकूप मे डाल देना । मौर्य-मन्त्री, सेनापति और अमात्यों को बन्दी बनाकर जो राज्य करता है। वह कैसा अच्छा राजा है। नागरिक ! उसकी कैसी अद्भुत योग्यता है । मगध को गर्व होना चाहिये। पहला नागरिक-गर्व नही वृद्ध ! लज्जा होनी चाहिये। ऐसा जघन्य अत्याचार ! वररुचि -यह तो मगध का पुराना इतिहास है । जरासंध का यह अखाडा है । एकाधिपत्य की कटुता का यह सदैव मे अभ्यस्त है । दूसरा नागरिक-अभ्यस्त होने पर भी अब असह्य है। शकटार--आज आप लोगो को बड़ी वेदना है, एक उत्सव का भंग होना अपनी आँखो से देखा है, नही तो जिस दिन शकटार को दण्ड मिला था, एक अभिजात नागरिक की सकुटुम्ब हत्या हुई थी, उस दिन जनता कहाँ सो रही थी ? तीसरा नागरिक -सच तो, पिता के समान हमलोगो की रक्षा करने वाले मन्त्री शकटार-हे भगवान् ! शकटार मैं ही हूँ। कंकाल-सा जीवित-ममाधि से उठ खड़ा हुआ हूँ। मनुष्य, मनुष्य को इस तरह कुचलकर स्थिर न रह सकेगा। मैं पिशाच बनकर लोट आया हूँ-अपने निरपराध सात पुत्रों की निष्ठुर हत्या का प्रतिशोध लेने के लिये-- चलोगे साथ ? चौथा नागरिक-मन्त्री शकटार ! आप जीवित है शकटार--हां, महापद्य के जारज पुत्र नन्द की-वधिक हिंस्रपशु नन्द की- प्रतिहिंसा का लक्ष्य-शकटार मैं ही हूँ सब नागरिक-हो चुका न्यायाधिकरण का ढोंग ! जमता की शुभकामना करने की प्रतिज्ञा नष्ट हो गयी । अब नही-आज न्यायाधिकरण मे पूछना होगा ! मौर्य-और मेरे लिए भी कुछ " नागरिक - तुम? मौर्य --सेनापति मौर्य-जिसका तुम लोगों का पता ही न था। 7 ६१६ : प्रसाद वाङ्मय