पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३३

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स्त्री--ठीक है महाराज ! मैं ही भ्रम में थी। सेनापति मौर्य का ही तो अपराध है-जब कुसुमपुर की ममस्त प्रजा विरुद्ध थी, जब जारज पुत्र के रक्त-रंगे हाथों से सम्राट महापद्म की जीवन-लीला शेष हुई थी, तभी सेनापति को चेतना चाहिये था ! कृतघ्न के माथ उपकार किया है, यह उसे नही मालम था। नन्द-चुप दुष्टे ! (उसके केश पकड़कर खींचना चाहता है/वररुचि बीच में आगर रोकता है) वररुचि-महाराज सावधान ! यह अबला है, स्त्री है । नन्द-यह मैं जानता हूँ- --कात्यायन ! हटो। वररुचि --आप जानते है पर इस समय आपको विस्मृत हो गया है। नन्द--तो क्या मैं तुम्हे भी इम कुचक्र में लिप्त समझू ? वररुचि-यह महाराज की इच्छा पर निर्भर है और किसी का दास न रहना मेरी इच्छा पर (छुरा रखते हुए) मैं शस्त्र समर्पण करता हूँ। नन्द (वररुचि का छुरा उठाकर) विद्रो ! ब्राह्मण हो न तुम ! मैंने अपने को स्वयं धोखा दिया। जाओ परन्तु ठहरो। प्रतिहारी ! (प्रतिहारी सामने आता है) इसे बन्दी करो और इस स्त्री के साथ मौर्य के समीप पहुंचा दो। [प्रतिहारी दोनों को बन्दी करता है] वररुचि -नन्द ! तुम्हारे पाप का घडा फूटना ही चाहता है ! अत्याचार की चिनगारी साम्राज्य का हरा-भरा कानन दग्ध कर देगी। न्याय का गला घोंटकर उस भीषण पुकार को नही दबा सकोगे जो तुम तक पहुँचती है अवश्य, किन्तु चाटुकारों द्वारा कुछ और ही ढग से । नन्द-बस-ले जाओ। [प्रतिहारी का बन्दियों सहित प्रस्थान] नन्द-(स्वगत) क्या अन्छा नही किया ? पन्तु ये सब मिले है जाने दो। (अन्य प्रतिहारी का प्रवेश) क्या है ? प्रतिहार --जय हो देव । एक सन्दिग्ध स्त्री राग-मन्दिर मे घूमती हुई पकड़ी गयी है। उसके पाम से अमात्य राक्षस की मुद्रा और एक पत्र भी मिला है ! नन्द --अभी ले आओ। (प्रतिहार जाफर मालविका को साथ ले आता है) तुम कौन हो? मालविका-मै एक स्त्री हूँ', महाराज नन्द-पर तुम यहाँ किसके पास आयी हो ? मालविका--मैं--मैं-मुझे किसी ने शतद्रु-तट से भेजा है। मैं पथ में बीमार हो गयी थी, विलम्ब हुआ नन्द-कैसा विलम्ब ? ? चन्द्रगुप्त : ६१३