पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३१

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! चाणक्य--आह ! तुम कोई दुखी मनुष्य हो ! घबराओ मत, मै तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ। शकटार--(ऊपर देखकर) तुम ! सहायता करोगे ! आश्चर्य ! मनुष्य, मनुष्य की सहायता करेगा? वह उसे निपशु के समान नोंच न डालेगा? हां यह दूसरी बात है कि वह जोंक की तरह बिना कष्ट दिये रक्त चुसे । जिसमें कोई स्वार्थ न हो--ऐसी सहायता ! तुम भूखे भेडिये ! चाणक्य--अभागे मनुष्य ! सबरो चौककर अलग न उछल ! अविश्वास की चिनगारी परों के नीचे से हटा । तुम जैसे दुखी बहुत-से पड़े है। यदि सहायता नहीं तो परस्पर का स्वार्थ ही सही। शकटार-दुःख ! दुःख नाम सुना होगा, या कल्पित आशंका से तुम उसका नाम लेकर चिल्ला उठते होगे। देखा है कभी--मात मात गोद के लालों को भूख से तड़पकर मरते ? अन्धकार की घनी चादर मे बरसो भू-गर्भ की जीवित समाधि में एक-दूसरे को अपना आहार देकर स्वेच्छा से मरते-- देखा है-प्रतिहिंसा की स्मृति को ठोकरे मार-मारकर जगाते और प्राण विसर्जन करते-देखा है कभी यह कष्ट- जगबों ने अपना आहार मुझे दिया और पिता होकर भी मै पत्थर-सा जीवित रहा ! उनका आहार खा डाला--उन्हे मरने दिया ! वे सुकुमार थे, वे सुख की गोद मे पले थे, वे नही महन कर सकते थे, अत. सब मर गये। मै बच रहा प्रतिशोध के लिए ! दानवी प्रतिहिंसा के लिए ! ओह ! उस अत्याचारी नर-राक्षस की अतड़ियों में से खीचकर एक बार रक्त का फुहार। छोड़ता--इस पृथ्वी को उसी से रंगा देखता। चाणक्य-सावधान [घुटनों के बल खड़े शकटार को उठाता है] शकटार -सावधान हों वे-जो दुर्बलों पर अत्याचार करते है ! पीड़ित पददलित, सब तरह लुटा हुआ ! जिसने पुत्रो की हड्डियो से सुरंग खोदी है, नखों से मिट्टी हटाई है, उसके लिए सावधान रहने की आवश्यकता नही। मेरी वेदना अपने अन्तिम अस्त्रों से सुसज्जित है ! चाणक्य-तो भी तुमको प्रतिशोध लेना है। हमलोग एक ही पथ के पथिक हैं। घबराओ मत । क्या तुम्हारा और कोई भी इस संसार मे जीवित नहीं ? शकटार- वची थी, पर जाने कहाँ है। एक बालिका--अपनी माता की स्मृति-सुवासिनी । पर अब कहाँ है-कौन जाने ? चाणक्य-क्या कहा-सुवासिनी ! शकटार--हाँ, सुवासिनी ! चाणक्य- और तुम शकटार हो? चन्दगृप्त • ६११ .