पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६१२

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अलका-दुर्ग ध्वंस करने के लिए पन्त्र लगाये जा चुके हैं, परन्तु मालव-सेना भी सुख की नीद नही सो रही है। सिंहरण को दुर्ग की भीतरी रक्षा का भार देकर चन्द्रगुप्त नदी-तट से यवनसेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण करेगे। मात्र ही गुड का अन्तिम निर्णय है। जिस स्थान पर यवन सेना को ले आना अभीष्ट था, वहाँ तक पहुंच गयी। मालविका -अच्छा, चलो कुछ नवीन आहत आ गये है, उनकी सेवा का प्रबन्ध करना है। अलका-(देखकर) मालविका ! मेरे पाम धनुष है और कटार है। इस आपत्तिकाल में एक आयुध अपने पास रखना चाहिये । तू कटार अपने पास रख ले । मालविका-मैं डरती हूँ, घृणा करती हूँ रक्त की प्यासी छुरी अलग करो अलका-मैने सेवा का व्रत लिया है। अलका-प्राणों के भय से-शस्त्र से घृणा करती हो क्या ! मालविका -प्राण तो धरोहर है, जिसका होगा वही लेगा, मुझे भयों से इनकी रक्षा करने की आवश्यकता नही, मैं जाती हूँ। अलका - अच्छी बात है, जा ! परन्तु सिंहरण को शीघ्र ही भेज दे ! यहाँ जब तक कोई न आ जाय, मैं नही हट सकती। [मालविका का प्रस्थान] अलका-संध्या का नीरव निर्जन प्रदेश है। बहू-(अकस्मात् बाहर से हल्ला होता है|युद्ध-शब्द) क्या चन्द्रगुप्त ने आक्रमण कर दिया ! परन्तु यह स्थान""बड़ा ही अरक्षित है ! (उठती है) अरे | वह कौन-प्राचीर पर यवन सैनिक है क्या ? तो सावधान हो जाऊं। [धनुष चढ़ाकर तीर मारती है|यवन-सैनिक का पतन/दूसरा फिर ऊपर आता है उसे भी मारती है/तीसरी बार स्वयं सिकन्दर ऊपर आता है-तीर का वार बचाकर दुर्ग में कूबता है और अलका को 'पकड़ना चाहता है/सहसा सिंहरण का प्रवेश और युद्ध] सिंहरण-(तलवार चलाते हुए) तुमको स्वयं इतना साहस नहीं करना चाहिये सिकन्दर | तुम्हारा प्राण बहुमूल्य है ! सिकन्दर-सिकन्दर केवल सेनाओ को आज्ञा देना नहीं जानता। बचायो अपने को- [भाले का वार करता है। सिंहरण ऐसी फुरती से भाले को ढाल पर लेता है कि वह सिकन्दर के हाथ से छूट जाता है।यवनराज विवश होकर तलवार चलाता है किन्तु सिंहरण के भयानक प्रत्याघात से ५९२: प्रसाद वाङ्मय