पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कल्याणी-आर्य, मैं इन बातों को नहीं सुनना चाहती, क्योंकि समप ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है। [अमात्य राक्षस का प्रवेश]] राक्षस-कौन ? चाणक्य ? चाणक्य-हाँ अमात्य ! राजकुमारी मगध लौटना चाहती है। राक्षस-तो उन्हें कोन रोक सकता है ? चाणक्य-क्यों? तुम रोकोगे। राक्षस-क्या तुमने सबको मूर्ख समझ लिया है ? चाणक्य-जो होगे वे अवश्य समझे जायेगे। अमात्य-मगध की रक्षा अभीष्ट नही है क्या? राक्षस- मगध विपन्न कहां है चाणक्य-तो मैं क्षुद्रको से कह दूं कि तुम लोग बाधा न दो, और यवनों से भी कह दिया जाय कि वास्तव में यह स्कंधावार प्राच्य देश के सम्राट का नहीं है, जिससे भयभीत होकर तुम पिपाशा पार नही होना चाहते, यह तो क्षुद्रकों की क्षुद्र सेना है, जो तुम्हारे लिए मगध तक पहुंचने का सरल पथ छोड़ देने को प्रस्तुत है- क्यों ? राक्षस-(विचार कर) आह ब्राह्मण, मैं रहूंगा, यह तो मान लेने योग्य सम्मति है परन्तु- चाणक्य-फिर परन्तु लगाया। तुम स्वय रहो और राजकुमारी भी रहें और तुम्हारे साथ जो नवीन गुल्म आये है उन्हे भी रखना पड़ेगा। जब सिकन्दर रावी के अंतिम छोर पर पहुंचेगा, तब तुम्हारी सेना का काम पड़ेगा। राक्षस ! फिर भी मगध पर मेरा स्नेह है। मैं उसे उजडने और हत्यारों से बचाना चाहता हूँ। (प्रस्थान) कल्याणी-क्या इच्छा है अमात्य ? राक्षस-मैं इसका मुंह भी नहीं देखना चाहता। पर इसकी बातें मानने के लिए विवश हो रहा हूँ। राजकुमारी ! यह मगध का विद्रोही अब तक बन्दी कर लिया जाता, यदि इसकी स्वतंत्रता आवश्यक न होती। कल्याणी--जैसी सम्मति हो। चाणक्य-(प्रवेश करके) अमात्य ! सिंह पिंजड़े मे बन्द हो गया है । राक्षस--कैसे ? चाणक्य-जल यात्रा में इतना विघ्न उपस्थित हुआ कि सिकन्दर को स्थलमार्ग से मालवों पर आक्रमण करना पड़ा। अपनी विजयों पर फूल कर उसने ऐसा किया, चन्द्रगुप्त : ५८७