पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९०

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. गांधारराज-नहीं, तू मुझे अबकी झोपड़ी में बिठाकर चली जापगी। जो महलों को छोड़ चुकी है, उसका क्षोपड़ियों के लिए क्या विश्वास ! अलका-नही पिताजी, विश्वास कीजिये । (सिंहरण से) मालव में कृतज्ञ हूँ। [सिंहरण सस्मित नमस्कार करता है/अपने पिता के साथ अलका जाती है] चाणक्य-सिंहरण ! तुम आ गये परन्तु सिंहरण-किंतु-परन्तु नही आर्य ! आप आज्ञा दीजिये हम लोग कर्तव्य में लग जाय । विपत्तियो के बादल मंडरा रहे है। चाणक्य-उसकी चिन्ता नही । पौधे अन्धकार मे बढ़ते हैं और मेरी नीतिलता भी उसो भांति विपत्ति के तम मे लहलही होगी। हां, केवल शौर्य से काम नही चलेगा। एक बात समझ लो-चाणक्य सिद्धि देखता है, साधन चाहे कैसे ही हों। बोलो, तुम लोग प्रस्तुत हो ! सिंहरण-हम लोग प्रस्तुत है । चाणक्य-तो युद्ध नही करना होगा। चन्द्रगुप्त- -फिर क्या ? चाणक्य-सिंहरण और अलका को नट और नटी बनना होगा, चन्द्रगुप्त बनेगा संपेरा और मैं ब्रह्मचारी । देख रहे हो चन्द्रगुप्त-पर्वतेश्वर की सेना मे जो एक गुल्म अपनी छावनी अलग डाले है ! वे सैनिक कहाँ के है ? चन्द्रगुप्त-नही जानता। चाणक्य-अभी जानने को आवश्यकता भी नही। हमलोग उसी सेना के साथ अपने स्वांग रखेगे । वही हमारे खेल होंगे। चलो, हमलोग चले, देखो-नवीन गुल्म का युवक सेनापति जा रहा है। [सबका प्रस्थान/पुरुष-वेश में कल्याणी और सेनापति का प्रवेश] कल्याणी-सेनापति ! मैंने दुस्साहस करके पिताजी को चिढ़ा तो दिया, पर अब कोई मार्ग बताओ, जिससे मैं सफलना प्राप्त कर सकूँ । पर्वतेश्वर को नीचा दिखलाना ही मेरा प्रधान उद्देश्य है । सेनापति राजकुमारी । कल्याणी-सावधान-सेनापति ! सेनापति -क्षमा हो, अब भूल न होगी । हाँ, तो केवल एक मार्ग है । कल्याणी-वह क्या? सेनापति-घायलों की शुश्रूषा का भार ले लेना । कल्याणी -मगध सेनापति ! तुम कायर हो। ५७०:प्रसाद वाङ्मय