पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९

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क्यारी में हैं कुसुम विटप मन भावने । आरोपित हैं यथास्थान काटे, बने । कार्नेलिया --क्यों सखी ! क्या उनको काट-छांट देने से उनका स्वाभाविक सौन्दर्य बिगाड़ा नहीं जाता? क्या वे उसी तरह नहीं भले मालूम होते ? एलिस-नागरिकों के हैं प्रमोद की वस्तु ये । बढ़ सकते हैं नहीं यथेप्सित अस्तु ये ॥ उल्लासित हो जिसने हाथ बढ़ा दिया। यथास्थान रहने को वह काटा गया । कार्नेलिया-प्यारी सखी प्रकृति उदार कगें से जो पाले गये। नीरद से जल-बिन्दु जहाँ डाले गये ॥ उन वर्धित तरुवृन्द प्रफुल्ल सुवास से । कर सकते ममता न अहो ! ये दास से ।। एलिस-कुमारी ! एक बात कहना तो मैं भूल ही गयी, अच्छा न कहूँगी। कार्नेलिया--क्या-क्या ? कह दे, तुझे कहना ही होगा। एलिस-उस दिन मिन्यु तट के शिविर के बाहर जब हम लोग घूमने गयी थीं तब वहां एक युवक दिखायी पड़ा था, जिसे तुम बहुत घूम-घूमकर देख रही थीं- कार्नेलिया -(रोक कर) मैं क्यों देखने लगी। तूने ही कहा कि कोई शत्रुपक्ष का सैनिक है । हम लोगों को बढ़ चलना चाहिये । एलिस-(हँसकर) हां हां, तो फिर इतना क्रोध क्यों करती हो सुनो, वही भारतवर्ष का राजा चन्द्रगुप्त था, शिकार खेलते-खेलते उधर आ गया था। कार्नेलिया-(अनमनी होकर) होगा। क्या कोई शिविर से दूत आया है ? एलिस-हाँ ! कहता था कि शाहंशाह सिल्यूकस को कुछ चोट आ गयी है। कार्नेलिया-हाय ! सखी मैं बाबा को देखने शीघ्र जाऊगी । तू भी चल । एलिस-चलंगी क्यों नही, अच्छा तैयारी करने की आज्ञा दे दें। (जाती है) [पटाक्षेप] पाँचवाँ वृश्य [सिल्यूकस का शिविर] कार्नेलिया-बाबा ! क्षमा करना। मेरा हृदय नहीं मानता था। युद्ध का समाचार सुनकर मैं न ठहर सकी, आपने मुझे क्यों हटा दिया था, अब मैं कहीं न जाऊंगी। कल्याणी परिणय : ४३