पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्यारहवां दृश्य

-यवन ।

[कानन पथ में अलका] अलका-चली जा रही हूँ । अनन्त पर्थ है कही पाथशाला नही, और न पहुंचने का निविष्ट स्थान-शैल पर से गिरा दी गई स्रोतस्विनी के सदृश अविराम भ्रमण, ठोकर और तिरस्कार । कानन मे कहाँ चली जा रही हूँ' (सामने देखकर) अरे- [शिकारी के वेश में सिल्यूकस का प्रवेश] सिल्यूकस-तुम कहाँ सुन्दरी र जकुमारी । अलका--मेरा देश है, मेरे पहाड है, मेरी नदियां है और मेरे जगल है। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे है और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्ही परमाणुओ के बने है। फिर मै कहाँ जाऊँगी यवन । सिल्यूकस-यहाँ तो तुम अकेली हो सुन्दरी । अलका-सो तो ठीक है--(दूसरी ओर देखकर सहसा) परन्तु देखो वह सिंह आ रहा है। [मिल्यूकस उधर देखता है।अलका दूसरी ओर निकल जाती है] सिल्यूकस-निकल गयी । (दूसरी ओर जाता है) [चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश] चाणक्य -वत्म तुम बहुत थक गये होगे। चन्द्रगुप्त-आर्य ! नसो ने अपने बन्धन ढीले कर दिये है, शरीर अवसन्न हो रहा है, प्यास भी लगी है। चाणक्य-और कुछ दूर न चल सकोगे " चन्द्रगुप्त-जैसी आज्ञा हो । चाणक्य-पास ही सिन्धु लहराता होगा, उसके तट पर ही विश्राम करना ठीक होगा। (चन्द्रगुप्त चलने के लिए पैर बढ़ाता है फिर बैठ जाता है-उसे पकड़ कर) सावधान-चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त-आर्य ? प्यास से कण्ठ सूख रहा है-चक्कर आ रहा है । चाणक्य-तुम विश्राम करो, अभी जल लेकर आता हूँ। (प्रस्थान) [चन्द्रगुप्त पसीने से तर लेट जाता है/एक व्याघ्र समीप आता दिखाई पड़ता है/सिल्यूकस प्रवेश करके धनुष पंभाल कर तीर चलाता है/व्याघ्र मरता है/सिल्यूकस की चन्द्रगुप्त को सचेत करने की चेष्टा/चाणक्य का जल लिये आना] चन्द्रगुप्त . ५५९