पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

? यवन-सावधान ( तुमको इस आज्ञा-भंग का फल भोगना पड़ेगा। मैं स्वयं बन्दी बनाना हूँ (ठहर कर अलका की ओर बढ़ता है सैनिक तलवार बीच लेते है) यह क्या सैनिक-डरते हो क्या ? पायर ।. स्त्रियो पर वीरता दिखाने मे बड़े प्रबल हो और एक युवक के सामने भाग निकले ! यवन-क्या, राजकीय आज्ञा का न तुम स्वय पालन करोगे और न करने दोगे। सैनिक-यदि साहस हो मरने का-तो आगे बढो। अलका-(सैनिकों से) ठहरो, विवाद करने का समय नही है। (यवन से) कहो, तुम्हारा अभिप्राय क्या है। यवन-मै तुम्हे बन्दी करना चाहता हूँ । अलका -कहाँ ले चलोगे ? यवन-गान्धार-नरेश के पास । अनका-मै चलती हूँ, चलो। [आगे अलका, पीछे यवन और सैनिक जाते है] दृश्या न्त र 1 अष्टम दृश्य [मगध का बन्दीगृह] चाणक्य ममीर की गति भी अवरुद्ध है, शरीर का फिर क्या कहना ! परन्तु मन में इतने सकरप और विकल्प ? एक बार निकलने पाता तो दिखा देता कि इन दुर्बल हाथो मे मांम्राज्य उलटने की शक्ति है और ब्राह्मण के कोमल हृदय मे कर्तव्य के लिए प्रलय की आँधी चला देने की कठोरता भी है। जकडी हुई लोह शृखले । एक गर तू फूलो की माला बन जा और मै मदोन्मत विलासी के समान तेरी मुन्दरता को भग कर दूं । क्या रोने लग ? इस निष्ठुर यन्त्रणा की कठोरता से बिल-बिलाकर दया की भिक्षा मांग' और माँ कि मुझे भोजन के लिए एक मुट्ठी चने जो देते हो, न दो, एक बार स्वतन्त्र कर दो नही चाणक्य । ऐसा न करना। नही तो तू भी माधारण-सी ठोकर खाकर चूर-चूर हो जाने वाली एक बांबी रह जायगा । तब--मै आज मे प्रण करता हूँ कि दया किसी से न मांगूंगा और अधिकार तथा अवमर मिलने पर न रिसी पर करूंगा (ऊपर देखकर) -क्या कभी नही? हां हां कभी किमी पर नही। मै प्रलयवन्या के समान अबाध गति और कर्तव्य मे इन्द्र के वज्र के समान भयानक बनूंगा। [किवाड़ खुलता है, वररुचि और राक्षस का प्रवेश] ५५२: प्रसाद वाङ्मय