पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७

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सेना - जय, सम्राट चन्द्रगुप्त की जय ! [चर आकर चंद्रगुप्त से कुछ धीरे से कहता है और इंगित पाकर चला जाता है] चंद्रगुप्त-(सैनिकों से) वीरगण ! हम लोगों को अभी और कुछ करना है । ग्रीक नरपशुओं को पवित्र भारतीय धरा से बाहर हाँक देना चाहिए। जिससे ये फिर से हमारी शस्यश्यामला धरा की ओर लोलुप दृष्टि से न देखें। सैनिक-जैसी महाराज की आज्ञा । [चाणक्य का प्रवेश] चाणक्य -विजयतां भारत सम्राटः । चन्द्रगुप्त आर्य । अभिवादन करता हूँ। चाणक्य-वत्म ! विजयलक्ष्मीलभस्व । चन्द्रगुप्त-आर्य ! इच्छा होती है कि ग्रीक शिविर पर अचानक आक्रमण करके कूट-युद्धकारी ग्रीकों को बता दें कि भारत को विजय करना दुःसाध्य ही नहीं किन्तु और कुछ भी है। चाणक्य ग्रीक शिविर में, सेना और सेनापति दोनों को विशेष लाभ की सम्भावना है। चन्द्रगुप्त -(प्रसन्न होकर) आर्य का आशीर्वाद सादर ग्रहण करता हूँ। चाणक्य-अभीष्ट-सिद्धि हो। (चन्द्रगुप्त आगे होता है और सैनिक पीछे-पीछे 'जय जय जय आर्य भूमि' इत्यादि गाते हुए जाते हैं) (पटाक्षेप) चौथा दृश्य कल-कल छन (राजकीय कानन) कठिन कुहक कल्पनामयी, प्रतिक्षण-सी नित्य नयी। नाद सुनाती है यह मृग-मरीचिका-मयी । छाया-सी छोड़ती न भर ऐसी ढीठ, भयो। अंक सदृश बढ़ती है इसकी प्रतिभा प्रभा नयी॥ कार्नेलिया--पिता ! वृद्ध पिता ! तुम्हें आशा कब तक दौड़ाया करेगी ? क्या तुम्हारा पहला शासनविस्तार कम है जो इस पिशाची की छलना में पड़े लाखों जीवों का नाश करा रहे हो। अहा हा ! इस शस्य श्यामला धरा को रक्तरंजित करनेवाले हिंस्र पशु नहीं तो क्या हैं ? ये नर पशु ग्रोक-सैनिक मारी की तरह देश का नाश कर रहे हैं। भारत की पवित्र भूमि केवल हत्या, लूट, रक्त और युद्ध से वीभत्स बनायी कल्याणी परिणय:४१