पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३३

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का उत्थान करने में सहायक होंगे, परंतु ऐसे हिंसक लोगों को सद्धर्म कोई आश्रय नहीं देगा। (पुरगुप्त की ओर देखकर) यद्यपि संघ ऐसे अकर्मण्य युवक को आर्य-साम्राज्य के सिंहासन पर नहीं देखना चाहता तो भी बौद्ध धर्माचरण करेंगे, राजनीति में भाग न लेंगे। अनंतदेवी-भिक्षु ! क्या कह रहे हो ? समझ कर कहना। हूण-सेनापति-गोपाद्रि से समाचार मिला है, स्कन्दगुप्त फिर जी उठा है, और सिंधु के इस पार के हूण उसके घेरे में हैं, संभवतः शीघ्र ही अंतिम युद्ध होगा। तब तक के लिए संघ को प्रतिज्ञा भंग न करनी चाहिये । पुरगुप्त-क्या-युद्ध ! तुम लोगों को कोई दूसरी बात नही..." अनंतदेवी-चुप रहो। पुरगुप्त-तब फिर--एक पात्र ! (सेवक देता है) प्रख्यातकीत्ति-अनार्य ! विहार में मद्यपान ! निकलो यहाँ से । अनंतदेवी-भिक्षु ! समझ कर बोलो, नहीं तो मुंडित मस्तक भूमि पर लोटने लगेगा। हूण-सेनापति-इसी की सब प्रवंचना है। इसका तो मैं अवश्य ही वध करूंगा। प्रख्यातकीत्ति--क्षणिक और अनात्मभव में कौन किसका वध करेगा, मूर्ख ! हूण-सेनापति-पाखंड ! मरने के लिए प्रस्तुत हो। प्रख्यातकीत्ति-सिंहल के युवराज की प्रेरणा से हम लोग इस सत्पथ पर अग्रसर हुए हैं, वहीं से लौट नहीं सकते। [हूण-सेनापति मारना चाहता है] धातुसेन-(ससैन्य प्रदेश करके) सम्राट् स्कन्दगुप्त की जय ! [सैनिक सबको बंदी कर लेते हैं] धातुसेन-कुचक्रियो ! अपने फल भोगने के लिए प्रस्तुत हो जाओ ! भारत के भीतर की बची हुई समस्त हूण-सेना के रुधिर से यह उन्हीं की लगाई ज्वाला गांत होगी! अनंतदेवी-धातुसेन ! यह क्या, तुम"हो ? धातुसेन हा महादेवी ! एक दिन मैंने समझाया था, तब मेरी अवहेलना की गई—यह उसी का परिणाम है । (सैनिकों से) सबकी शीघ्र साम्राज्य-स्कंधावार में चलो। [सबका प्रस्थान/वृश्यांतर] स्कन्दगुम विक्रमादित्य : ५१३