पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२६

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.... -बाबा पर्णदत्त--(शांत पीसकर) नीच, दुरात्मा, विलास का नारकीय कीड़ा ! बालों को संवार कर, अच्छे कपड़े पहन कर, अब भी घमंड से तना हुआ निकलता है ! कुलवधुओं का अपमान सामने देखते हुए भी अकड़ कर चल रहा है, अब तक विलास और नीच वासना नहीं गई ! जिस देश के नवयुवक ऐसे हों उसे अवश्य दूसरों के अधिकार में जाना चाहिये। देश पर यह विपत्ति, फिर भी यह निराली धज ! देवसेना--(प्रवेश करते) क्या है बाबा। क्यों चिढ़ रहे हो ? जाने दो, जिसने नहीं दिया-उसने अपना, कुछ तुम्हारा तो नही ले गया। पर्णदत्त--अपना ! देवसेना | अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों का । प्रकृति ने उन्हें हमारे लिए-हम भूखों के लिए- रख छोड़ा है। वह थाती है-उसे लौटाने में इतनी कुटिलता! विलास के लिए उनके पास पुष्कल धन है, और दरिद्रो के लिए नही ? अन्याय का समर्थन करते हुए तुम्हे भूल न जाना चाहिए कि" देवसेना क्षमा करो। जाने दो, कोई तो देगा। पर्णदत्त-हमारे ऊपर सैकड़ों अनाथ वीरों के बालको का भार है ! बेटी ! ये युद्ध मे मरना जानते है, परंतु भूख से तड़पते हुए उन्हे देखकर आँखों से रक्त गिर पड़ता है। देवसेना-बाबा | महादेवी की समाधि स्वच्छ करती हुई आ रही हूँ। कई दिनों से भीम नहीं आया, मातृगुप्त भी नही-सब कहाँ है ? पर्णदत्त-आवेगे बेटी ! तुम बैठो, मैं अभी जाता हूँ। (प्रस्थान) देवसेना-संगीत-सभा की अंतिम लहरदार और आश्रयहीन तान, धूपदान की एक मीण गंध-रेखा, कुचले हुए फूलों का म्लान् सौरभ और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबो की प्रतिकृति-मेरा क्षुद्र मारीजीवन | मेरे प्रिय गान ! अब क्या गाऊँ और क्या सुनाऊँ ? इन बार-बार के गाये हुए गीतों में क्या आकर्षण है क्या बेल है जो खीचता है ? केवल सुनने की ही नही, प्रत्युत जिसके साथ अनंतकाल तक कंठ मिला रखने की इच्छा जग जाती है-(गाती है) शून्य गगन में खोजता जैसे चंद्र निराश राका में रमणीय यह किसका मधुर प्रकाश । हृदय ! तू खोजता किसको छिपा है कौन-सा तुममें, मचलता है बता क्या दूं छिपा तुझसे न कुछ मुझमें। रस-निधि में जीवन रहा, मिटी न फिर भी प्यास, मुंह खोले मुक्तामयी सोपी स्वाती आस । ५०६:प्रसाद वाङ्मय