पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२३

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[पर्णदत्त के साथ देवसेना का प्रस्थान स्कंदगुप्त का प्रवेश स्कंदगुप्त--कोई नहीं मिला। कहाँ से वह पुकार आई थी ? मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है । सच्चे मित्र बंधुवर्मा की धरोहर ! ओह ! कमला-वह सुरक्षित हैं, घबराइये नही। कनिष्क के स्तूप के पास आपकी माता की समाधि है, वही पर पहुंचा दी गई है, स्कंदगुप्त - माँ ! मेरी जननी ! तू भी न रही ! हा [मूच्छित होता है|कसला उसे कुटी में उठा ले जाती है] [पटाक्षेप] पंचम अक प्रथम दृश्य [पथ में मुद्गल] मुद्गल -राजा मे रंक और ऊपर से नीचे; अभी दुर्वृत्त दानव, अभी स्नेह संवलित मानव, कही वीणा की झन्कार, कही दीनता का तिरस्कार--(सिर पर हाथ रखकर बैठ जाता है) भाग्यचक्र ! तेरी बलिहारी ! जयमाला यह सुनकर कि बंधुवर्मा वीरगति को प्राप्त हुए सती हो गई, और देवसेना को लेकर बूढ़ा पर्णदत्त देवकुलिक-मा महादेवी की ममाधि पर जीवन व्यतीत कर रहा है। चक्रपालित, भीमवर्मा और मातृगुप्त राजाधिराज को खोज रहे हैं, सब विक्षिप्त ! सुना है कि विजया का मन कुछ फिरा है, वह भी इन्ही लोगों के स थ मिली है, परंतु उस पर विश्वास करने को मन नही करता। अनंतदेवी ने पुरगुप साथ हूणों से सधि कर ली है; मगध मे महादेवी और परम भट्टारक बनने का आभनय हो रहा है। सम्राट की उपाधि है 'प्रकाशादित्य' परंतु प्रकाश के स्थान पर अंधेरा है ! आदित्य में गर्मी नही। सिंहासन के सिंह सोने के है ! समस्त भारत हूणों के चरणों मे लोट रहा है, और भटार्क मूर्ख की बुद्धि के समान अपने कर्मों पर पश्चात्ताप कर रहा है। (सामने देखकर) वह विजया आ रही है ! तो हट चलं । [उठकर जाना चाहता है] विजया-अरे मुद्गल ! जैसे पहचानता ही न हो। सच है, समय बदलने पर लोगों की आंखें भी बदल जाती हैं। मुद्गल-तुम कौन हो जी? वे जान-पहचान की छेड़-छाड़ अच्छी नहीं लगती, स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५०३