पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१८

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. धातुसेन-बाह्मण क्यों महान् हैं इसीलिए कि वे त्याग और ममा की मूक्ति हैं। इसी के बल पर बड़े-बड़े सम्राट् उनके आश्रमों के निकट निश्शस्त्र होकर जाते थे, और वे तपस्वी-- 1--ऋत और अमृत-वृत्ति से जीवन-निर्वाह करते हुए सायं प्रातः अग्निशाला में भगवान से प्रार्थना करते थे-- सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखमाप्नुयात् ॥ -आप लोग उन्ही ब्राह्मणों की संतान है, जिन्होंने अनेक यज्ञों को एक बार ही बंद कर दिया था। उनका धर्म समयानुकूल प्रत्येक परिवर्तन को स्वीकार करता है, क्योंकि मानव-बुद्धि, ज्ञान का--जो वेदों के द्वारा हमे मिला है-प्रस्तार करेगी, उसके विकास के साथ बढेगी और यही धर्म की श्रेष्ठता है । प्रख्यातकीत्ति-धर्म के अंधभक्तों ! मनुष्य अपूर्ण है। इसलिए सत्य का विकास जो उसके द्वारा होता है, अपूर्ण होता है। यही विकास का रहस्य है । यदि ऐसा न हो तो ज्ञान की वृद्धि असंभव हो जाय । प्रत्येक प्रचारक को कुछ- न-कुछ प्राचीन असत्य परंपराओ का आश्रय इसी से ग्रहण करना पड़ता है। सभी धर्म, समय और देश को स्थिति के अनुसार विवृत होते रहे हैं और होंगे। हम लोगों को हठ-धर्मिता से उन आगंतुक क्रमिकपूर्णता प्राप्त करने वाले ज्ञानों से मुंह न फेरना चाहिए। हम लोग एक ही मूल धर्म की दो गाखायें है । आओ हम दोनो विचार के फूलो से दु खदग्ध मानवों का कठोर पथ कोमल करे। बहुत-से लोग--ठीक तो है-ठीक तो है, हम लोग व्यर्थ आपस मे ही झगड़ते हैं और आततायियो को देखकर घर मे घुस जाते है । हूणो के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्यों नही अई जाते ? दंडनायक-यही तो बात हे नागरिक ! प्रख्यातकोत्ति--मै इस विहार का आचार्य हू, और मेरी सम्मति धार्मिक झगड़ों मे बौद्धो को माननी चाहिये। मैं जानता हू कि भगवान् ने प्राणिमात्र को बरावर बनाया है, और जीव-रक्षा इसीलिए धर्म है। किंतु जब तुम लोग स्वयं इसके लिए युद्ध करोगे, तो हत्या की मस्या बढ़ेगी ही। अत यवि तुम में कोई सच्चा धार्मिक हो तो वह आगे आवे, और ब्राह्मणो मे पूछे कि आप मेरी बलि देकर इतने जीवों को छोड़ सकते हैं। क्योंकि इन पशुओ से मनुष्यों का मूल्य ब्राह्मणों की दृष्टि मे भी विशेष होगा। आइये, कौन आता है, किसे बोधिसत्व होते की इच्छा है ! (बौद्धों में से कोई नहीं हिलता) प्रख्यातकीत्ति-हिंसकर) यही आपका धर्मोन्माद था? एक युद्ध करने वाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित होकर अधर्म करना और धर्माचरण की दुंदुभी बजाना--यही आपकी करुणा की सीमा है ? जाइये, पर लौट जाइये । (बाह्मण ४९८: प्रसाद वाङ्मय