पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१६

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भिक्षु--विहार के समीप जो चातुष्पथ का चैत्य है, वहां कुछ ब्राह्मण बलि किया चाहते हैं । इधर भिक्षु और बौद्ध जनता उत्तेजित है । धातुसेन-चलो, हम लोग भी चले--उन उत्तेजित लोगो को शांत करने का प्रयत्न करे। [मब जाते हैं/दृश्यांतर]] पंचम दृश्य [विहार के समीप चतुष्पथ/एक ओर ब्राह्मण लोग बलि के उपकरण लिए, दूसरी ओर उत्तेजित भिक्षु और बौद्ध जनता/दंडनायक का प्रवेश] दडनायक-नागारागण | यह समय अतविग्रह का नही। देखते नहीं हो कि साम्राज्य विना कर्णधार का पोन होकर डगमगा रहा है, और नुम लोग क्षुद्र बातो को लिए परस्पर झगडते हो। ब्राह्मण--इन्ही बौद्धो ने गुप्त शत्रु का काम दिया है। कई बार के विताडित हूण इन्ही लोगो की सहायता मे पृन आये है इन गुप्त शत्रुओ को कृतघ्नता का उचित दंड मिलना चाहिये । श्रमण--ठीक है । गगा, यमुना और सरयू के तट पर गडे हुए यज्ञयूप सर्मियो की छाती मे ठुकी हुई कीलो की तरह जब भी खटकते हैं। हम लोग निस्सहाय थे- क्या करते--विधर्मी विदेशी की शरण में भी यदि प्राण बच जायें और धर्म की रक्षा हो। राष्ट्र और समाज मनुष्यो के द्वारा बनते है--उन्ही के मुख के लिए। जिस राष्ट्र और समाज से हमारी सुख-शाति मे वाधा पडती हो--उसका हमे तिरस्कार करना ही होगा। इन मस्याओ का उद्देश्य है--मानवो की सेवा। यदि वे हमी से अवैध सेवा लेना चाहे और हमारे पाटो को न हटावे, तो हमे उसकी सीमा के बाहर जाना ही पटेगा। ब्राह्मण-ब्राह्मणो को इतनी हीन अवस्था में बहुत दिनो तक विश्वनियंता नही देख मकते। जो जाति विश्व के मस्तिष्क का शामन करने का अधिकार निये उत्पन्न हुई है-वह कभी चरणो के नीचे न बैठेगी। आज यहाँ बलि होगी-हमारे धर्मा- चरण मे स्वयं विधाता भी बाधा नहीं टाल गरते। श्रमण-निरीह प्राणियो के बध मे कौन-सा धर्म है-ब्राह्मण ? तुम्हारी इसी हिमा-नीति और अहकार मूलक गात्मवाद का खडन तथागत ने किया था। उस समय तुम्हारा ज्ञान-गौरव कहाँ था ? क्यों नतमस्तक होकर समन जंबूद्वीप ने उस ज्ञान-रणभूमि के प्रधान मल्ल के समक्ष हार स्वीकार की ? तुम हमारे धर्म पर अत्याचार किया चाहते हो, यह नही हो सकेगा। इन पशुओ के बदले हमारी बलि ४९६ : प्रसाद वाङ्मय