पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९३

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स्कंदगुप्त-भटार्क ! तुम गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधिकृत नियत किये गये थे, और तुम्ही साम्राज्य-लक्ष्मी महादेवी की हत्या के कुचक्र में सम्मिलित थे ! यह तुम्हारा अक्षम्य अपराध है। भटार्क-मैं केवल राजमाता की आज्ञा का पालन करता था। देवकी-क्यों भटार्क ! यह उत्तर तुम मच्चे हृदय से देते हो? ऐसा कहकर तुम स्वयं अपने को धोखा देते हुए क्या औरों को भी प्रवंचित नही कर रहे हो ? भटार्क - अपराध हुआ। (शिर नीचा कर लेता है) स्कंदगुप्त-तुम्हारे खड्ग पर साम्राज्य को भरोसा था। तुम्हारे हृदय पर तुम्ही को भरोमा न रहे, यह बड़े धिक्कार की बात है। तुम्हारा इतना पतन ? (भटार्क स्तब्ध रहता है विजया की ओर देखकर) और तुम विजया? तुम क्यों उसमें- देवसेना -सम्राट् ! विजया मेरी सखी है । विजया-परंतु मैंने भटार्क को वरण किया है । जयमाला--विजया ! विमा - कर चुकी देवि ! देवसेना-उमके लिए दूसरा उपाय न था राजाधिराज | प्रतिहिंमा मनुष्य को इतने नीचे गिरा सकती है ! परंतु विजया तूने शीघ्रता की। [स्कंद विजया की ओर देखते हुए विचार में पड़ जाता है] गोविदगुप्त - यह वृद्धा इसी कृतघ्न भटार्क की माता है ! भटार्क के नीच कर्म से दुखी होकर यह उज्जयिनी चली आई है। स्कंदगुप्त-परंतु विजया, तुमने यह क्या किया ? देवसेना-(स्वगत) आह ! जिसकी मुठो आशंका थी. वही है-विजया, आज तू हार कर भी जीत गई। देवकी-वत्स ! आज तुम्हारे शुभ महाभिषेक मे एक बूंद भी रक्त न गिरे। तुम्हारी माता की यही मंगल कामना है कि तुम्हारा शासन-दंड क्षमा के संकेत पर चला करे । आज मैं सबके लिए क्षमाप्रार्थिनी हूँ। धातुसेन–आर्यनारी सती ! तुम धन्य हो ! इसी गौरव से तुम्हारे देश का शिर ऊँचा रहेगा। स्कंदगुप्त-जैसी माता की इच्छा- मातृगुप्त-परमेश्वर परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री स्कं गुप्त की जय ! [समवेत कंठ से जयघोष [पटाक्षेप] स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४७३