पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८५

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जाओ-मैं स्त्री पर हाथ नहीं उठाता, परंतु सावधान ! विद्रोह की इच्छा न करना, नहीं तो क्षमा असंभव है । (देवकी के चरणों पर झुकते हुए) अहा ! मेरी, माँ ! देवकी-(आलिंगन करके) आओ मेरे वत्स । दृ श्या न्त र पंचम दृश्य [अवंती-दुर्ग का एक भाग/बधुवर्मा, भीमवर्मा और जयमाला का प्रवेश बंधुवर्मा-वत्स भीम ! बोलो, तुम्हारी क्या सम्मति है ? भीमवर्मा-तात | आपकी इच्छा-मै तो आपका अनुचर हूं। जयमाला-परंतु इसकी आवश्यकता ही क्या है ? उनका इतना बड़ा साम्राज्य है, तब भी मालव के बिना काम नही चलेगा क्या- बंधुवर्मा-देवि ! केवल स्वार्थ देखने का अवसर ना है। यह ठीक है कि शकों के पतन-काल मे पुष्करणाधिपति स्वर्गीय महाराज सिंहवर्मा ने एक स्वतंत्र गज्य र तिन किया और उनके वंशधर ही उस राज्य के स्वत्वाधिकारी हैं, परंतु उस राज्य का ध्वंस हो चुका था, म्लेच्छों की सम्मिलित वाहिनी उसे धूल में मिला चुकी थी, उस समय तुम लोगों को केवल आत्महत्या का ही अवलंब शेष था-तब इन्ही स्कंदगुप्त ने रक्षा की थी, यह राज्य अब न्याय से उन्ही का है। भीमवर्मा-परंतु क्या वे मांगते हैं ? बंधुवर्मा-नही भीम | युवराज स्कंद ऐसे क्षुद्र हृदय नही, उन्होंने पुरगुप्त को-उस जघन्य अपराध पर भी, मगध का शासक बना दिया है। वह तो सिहासन भी नही लेना चाहते। जयमाला-परंतु तुम्हारा मालव उन्हे ।प्रय है ! बंधुवर्मा-देवि, तुम नही देखती हो कि आर्यावर्त पर विपत्ति की प्रलय- मेघमाला घिर रही है, आर्य-साम्राज्य के अंतविरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भली-भांति जान गये है। शीघ्र ही देशव्यापी युद्ध की संभावना है। इसलिए यह मेरी ही सम्मति है कि साम्राज्य की सुव्यवस्था के लिए, आर्य-राष्ट्र के त्राण के लिए, युवराज उज्जयिनी में रहें - इसी में सबका कल्याण है : आर्यावर्त का जीवन केवल स्कंदगुप्त के कल्याण से है । और, उज्जयिनी में साम्राज्याभिषेक का अनुष्ठान होगा- सम्राट् होंगे स्कंदगुप्त । जयमाला-आर्यपुत्र ! अपना पैतृक राज्य इस प्रकार दूसरों के पदतल में निःसंकोच अर्पित करते हुए हृदय कांपता नही है ? क्या फिर उन्ही की सेवा करते हुए दास के समान जीवन व्यतीत करना होगा? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४६५