पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८२

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शर्वनाग–अच्छा, तू इसमें विघ्न डालेगी। तू तो क्या, विघ्नों का पहाड़ भी होगा तो ठोकरों से हटा दिया जायेगा। मुझे सोना और सम्मान मिलने में कौन बाधा देगा? रामा-मैं दूंगी। सोना मैं नहीं चाहती, मान मैं नही चाहती, मुझे अपना स्वामी अपने उसी मनुष्य-रूप मे चाहिए। (पैर पड़ती है) स्वामी ! हिंस्र-पशु भी जिनसे पाले जाते है, उन पर चोट नही करतें, अरे तुम तो मस्तिष्क रखने वाले मनुष्य हो। शर्वनाग- (ठुकरा देता है) जा, तू हट जा, नही तो मुझे एक के स्थान पर दो हत्यायें करनी पड़ेगी ! मैं प्रतिश्रुत हूं, वचन दे चुका हूं ! रामा -(प्रार्थना करती हुई) तुम्हारा यह झूठा सत्य है ! ऐसा प्रतिज्ञाओं का पालना सत्य नही कहा जा सकता, ऐसे धोखे का सत्य लेकर ही संसार मे पाप और असत्य बढ़ते हैं । स्वामी ! मान जाओ। गर्वनाग-ओह, विलंब होता है, तो पहले तू ही ले-(पकड़ना और मारना चाहता है-रामा शीघ्रता से हाथ छुड़ाकर भाग जाती है) [अनन्तदेवी प्रपंचबुद्धि और भटार्क का प्रवेश] भटार्क-गर्व ! शर्मनाग-जय हो! मै प्रस्तुत हूं, परन्तु मेरी स्त्री इसमे बाधा डालना चाहती है । मैं पहले उमी को पकडना चाहता था, परन्तु वह भगी। अनतदेवी-सौगन्ध है ! यदि तू विश्वासघात करेगा तो कुत्तों से नुचवा दिया जायेगा। प्रपंचबुद्धि--शर्व ! तुम तो स्त्री नही हो । शर्वनाग-नही में प्रतिश्रुत हूं परन्तु भटार्क-तुम्हारी पद-वृद्धि और पुरस्कार का यह प्रमाण-पत्र प्रस्तुत है (दिखाता है) काम हो जाने पर- शर्वनाग-तब शीघ्र वलिये, दुप्टा रामा भी पहुँच ही गयी होगी। [सब जाते हैं। दृश्यांतर] चतुर्थ दृश्य [बन्दीगृह में देवकी और रामा] रामा-महादेवी ! मैं लज्जा के गर्त में डूब रही हूं। मुझे कृतज्ञता और सेवा धर्म धिक्कार दे रहे हैं मेरा स्वामी" देवकी-शात हो रामा ! बुरे दिन कहते किसे हैं ? जब स्वजन लोग अपने ४६२ : प्रसाद वाङ्मय