पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८०

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मुद्गल-कुछ चिन्ता नहीं, चलो युवराज आ गये है । धातुसेन-मैं भी प्रस्तुत रहूंगा। [दोनों का प्रस्थान/दृश्यांतर] तृतीय दृश्य [देवकी के राजमंदिर का बाहरी भाग/मदिरोन्मत्त शर्वनाग का प्रवेश] शर्वनाग -- कादंब, कामिनी, कंचन-वर्णमाला के पहले अक्षर । करना होगा। इन्ही के लिए कर्म करना होगा। मनुष्य को यदि इन कवर्गों की चाट नही तो कर्म क्यों करें? 'कर्म' में एक 'कु' और जोड़ दें तो अच्छी वर्णमैत्री होगी ! (लड़खड़ाते हुए) कादंब ! ओह प्यास ! (प्याले में मदिरा उड़ेलता है) लाल-यह क्या रक्त ? आह ! कैमी भीषण कमनीयता है ! लाल मदिरा लाल नेत्रों मे लाल-लाल रक्त देखना चाहती है । किसका ? एक प्राणी का, जिमके कोमल माम मे रक्त मिला हो । अरे रे, नही, दुर्बल नारी -उँह यह तेरी दुर्बलता है। चल अपना काम देख, मामने सोने का मंसार खडा है ! रामा -(प्रवेश करते) पामर मोने की लंका राख हो गई। शर्वमाग-उसमे मदिग न रही होगी, सुन्दरी रामा - मदिग वा समुद्र उफन रहा था मदिरा-समुद्र के तट पर ही तो लंका बसी थी ! शर्वनाग T-तब उसमें तुम जैसी कोई कामिनी न होगी। तुम कौन हो-स्वर्ग की अप्सरा या स्वप्न की चुडैल ? रामा-स्त्री को, देखते ही दिलमिल हुए, आँखे फाडकर देखते है जैसे खा जायेंगे । मैं कोई हूँ ! शर्वनाग-सुन्दरी ! यह तुम्हारा ही दोप है। तुम लोगों का वेश-विन्यास आँखों की लुका-चोरी, अंगों का सिमटना, चलने मे एक क्रीडा, एक कौतूहल, पुकार कर-टोंक कर कहते है - 'हमे देखो'- क्या करे हम, देखते ही बनता है ! रामा-दुर्वृत्त मद्यप ! तू अपनी स्त्री को नही पहचानता है ? परस्त्री समझ कर उसे छेडता है ! शर्वनाग-(सम्हल कर) अयं ! अरे-ओह ! मेरी रामा तुम हो ? रामा-हाँ, मैं हूँ। शर्वनाग-(हँसकर) तभी तो, मैं तुमको जानकर ही बोला, नही भला मैं किसी पर स्त्री से-(जीम निकालकर कान पकड़ता है) रामा-अच्छा, यह तो बताओ, कादंव पीना कहां से सीखा ? और यह क्या बकते थे? ४६०: प्रसाद वाङ्मय