पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७०

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1 तेज को कब सह सकती हैं। श्रेष्ठि-कन्ये ! हम क्षत्राणी हैं, चिरसंगिनी खड्गलता का हम लोगों से चिर-स्नेह है। बंधुवर्मा-प्रिये ! शरणागत और विपन्न की मर्यादा रखनी चाहिये। अच्छा दुर्ग का तो नही, अंत.पुर का भार तुम्हारे ऊपर है । देवसेना-भैया, आप निश्चित रहिये । बंधुवर्मा-भीम दुर्ग का निरीक्षण करेगा। मैं जाता हूँ ! (जाता है) विजया भयानक युद्ध ममीप जान पडता है-क्यों राजकुमारी ! देवसेना-तुम वीणा ले लो तो मै गाऊँ। विजया-हँसी न करो राजकुमारी। जयमाला-बुरा क्या है ? विजया -युद्ध और गान जयमाला-युद्ध क्या गान नही है ? रुद्र का शृंगीनाद, भैरवी का ताडव-नृत्य, और शस्त्रो का वाद्य मिलकर एक भैरव-मंगीत की सृष्टि होती है। जीवन के अंतिम दृश्य को जानते हुए, अपनी आँखो से देखना, जीवन-रहस्य के चरम मौदर्य की नग्न और भयानक वास्तविकता का अनुभव-केवल सच्चे वीर-हृदय होता है। ध्वंसमयी महामाया प्रकृति का वह निरतर-सगीत है। उसे सुनने के लिए हृदय मे साहस और बल एकत्र करो। अत्याचार के स्मशान में ही मंगल का, शिव का, सत्य-सुंदर संगीत का समारंभ होता है। देवसेना--तो भाभी, मैं तो गाती हूं। एक बार गा लूं, हमारा प्रिय गान फिर गाने को मिले या नहीं। जयमाला-तो गाओ न ! विजया-रानी ! तुम लोग आग की चिनगारियाँ हो-या स्त्री हो ? देवी ज्वालामुखी की सुदर लट के समान तुम लोग"" जयमाला-सुनो, देवसेना गा रही है- [देवसेना गाती है] भरा नैनो मे मन मे रूप । किसी छलिया का अमल अनूप । जल-थल-मारुत, व्योम मे, जो-छाया है सब ओर । खोज-खोजकर खो गयी मैं, पागल-प्रेम विभोर । भाग से भरा हुआ यह कूप । भरा नैनो मे मन में रूप । धमनी की तंत्री बजी, तू रहा लगाये कान । बलिहारी मैं कौन तू है मेरा जीवन-प्रान । ४५०:प्रसाद वाङ्मय