पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६७

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मातृगुप्त-नही मुद्गल, निरीह प्रजा का नाश देखा नहीं जाता। क्या इनकी उत्पत्ति का यही उद्देश्य था? क्या इनका जीवन केवल चीटियों के समान किसी की प्रतिहिंसा पूर्ण करने के लिये है ? देखो-वह दूर पर बंधे हुए नागरिक और उन पर हूणों की नृशंसता ! ओह !! मुद्गल-अरे ! हाय रे बाप ! ! मातृगुप्त-सावधान ! असहाय अवस्था में प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई उपाय नही, आओ, हम लोग भगवान् से विनती करे- [सम्मिलित स्वर से]] उतारोगे अव कब भू-भार बार-बार क्यो कह रक्खा था लूंगा मै अवतार उमड रहा है इस भूतल पर दुख का पारावार बाडव लेलिहान जिह्वा का करता है विस्तार प्रलय-पयोवर बरस रहे हे रक्त-अश्रु की धार मानवता मे राक्षमत्व का अब है पूर्ण प्रचार पडा नही कानों में अब तक क्या यह हाहाकार सावधान हो अब तुम जानो मैं तो चुका पुकार [बन्दियों के साथ हूण सैनिकों का प्रवेश] हूण-चुप रह, क्या गाता है ? मुद्गल-हे हे, भीख माँगता हूँ, गीत गाता है। आप भी कुछ दीजियेगा? (दीन मुद्रा बनाता है) हूण-(धक्का देते हुए) चल, एक ओर खडा हो। हाँ जी, इन दुष्टों ने कुछ देना अभी स्वीकार नही किया, बडे कुत्ते है ! नागरिक-हम निरीह प्रजा है। हम लोगो के पास का रह गया जो आप लोगों को दे । सैनिको ने तो पहले ही लूट लिया है । हूण-सेनापति-तुम लोग बाते बनाना खूब जानते हो । अपना छिपा हुआ धन देकर प्राण बचाना चाहते हो तो गीघ्रता करो, नही तो गरम किये हुए लोहे प्रस्तुत है-कोड़े और तेल मे तर कपड़े भी। उस कष्ट का स्मरण करो । नागरिक-प्राण तो तुम्हारे हाथो मे है, जब चाहो ले लो। हूण-सेनापति-(कोड़े से मारता हुआ) उसे तो ले लेगे ही; पर, धन कहाँ है ? नागरिक-नही है निर्दय । हत्यारे ! 'ह दिया कि नहीं है । हूण-सेनापति-(सैनिकों से) इन बालकों को तेल से भीगा हुआ कपड़ा डाल कर जलाओ और स्त्रियों को गरम लोहे से दागो। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४४७